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किरातार्जुनीयम् विनाश के लिए क्षात्र तेज को पुनः धारण कीजिए। मुनि लोग ही शान्ति के द्वारा सिद्धि को प्राप्त करते हैं, राजा लोग नहीं। तेजस्वियों में अग्रणी और यश को सर्वस्व मानने वाले आप जैसे व्यक्ति भी यदि इस प्रकार शत्रुओं से तिरस्कार प्राप्त करके चुपचाप बैठे रहेंगे तो बड़े खेद की बात है कि मनस्विता आश्रयविहीन होकर विनष्ट हो जायेगी। यदि आपका पराक्रम समाप्त हो गया है
और आप सदा के लिए शान्ति को ही सुख का साधन मानते हैं तो राजाओं के चिह्न इस धनुष को त्यागकर जटा धारण कर लीजिए और द्वैत वन में रहकर हवन कीजिए। जब शत्रु अपकार करने में लगे हुए हैं तब आपको समय (तेरह वर्ष) की प्रतीक्षा करना उचित नहीं है। विजयाभिलाषी राजागण शत्रुओं से कपट का व्यवहार करके सन्धि में दोष उत्पन्न कर देते हैं
और सन्धि को तोड़ देते हैं। भाग्य और समय के नियम के कारण तेजहीन हुए और अपार आपत्ति में पड़े हुए आपको राजलक्ष्मी पुनः प्राप्त होवे ।