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________________ ११२ किरातार्जुनीयम् टि०-(१) द्रौपदी ने अब तक युधिष्ठिर पर आक्षेप किये हैंउसके हृदय को वाणी रूपी बाणों से वेधा है और उसे अपने कर्तव्य के प्रति सजग (जागरूक) किया है। इस श्लोक से अनुशासन प्रारम्भ होता है (दे० २८ वा श्लोक)। वर्तमान परिस्थिति में युधिष्ठिर को क्या करना चाहिए-इसका उपदेश वह कर रही है। (२) सांसारिक विषयों की ओर दौड़ने वाले अन्तःकरण की सांसारिक विषयों में अरुचि उत्पन्न करके उसे ब्रह्म-ज्ञान के साक्षात्कार के साधनभूत श्रवण, मनन इत्यादि की ओर लगाने वाली मन की एक वृत्ति को शम कहते हैं। संसार से विरक्त मुनि लोग शम के द्वारा मोक्षरूपी सिद्धि प्राप्त करते हैं। राजा लोग राज्यप्राप्ति रूपी सिद्धि को शम के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते हैं। राज्य की प्राप्ति के लिए बल और उत्साह की आवश्यकता है। (३) नकार की अनेक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास अलंकार । घण्टापथ-विहायेति । हे नृप, शान्तिं विहाय तत्प्रसिद्धं घाम तेजो विद्विषां वधाय पुनः सन्धेहि अङ्गीकुरु । प्रसीद। प्रार्थनायां लोट् । ननु शमेन कार्यसिद्धौ किं क्रोधेनेत्याह-व्रजन्तीति । निस्पृहाः मुनयः शत्रून् अवधूय निर्जित्य । शमेन क्रोधवर्जनेन सिद्धिं ब्रजन्ति । भूभृतस्तु न । कैवल्यकार्यवद् राजकार्य न शान्तिसाध्यमित्यर्थः ।। ४२ ॥ पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारमीदृशम् । भवादृशाश्चेदधिकुर्वते रति निराश्रया हन्त हता मनस्विता ॥ ४३ ॥ __ अ०-धामवतां पुरःसराः यशोधनाः भवाशाः ईशं सुदुःसहं निकारं प्राप्य रतिम् अधिकुर्वते चेत् हन्त मनस्विता निराश्रया (सती) हता। श-धामवतां = तेजस्वी (जनों) में, तेजस्वियों में। पुरःसराः = अग्रणी, अग्रेसर, प्रमुख । यशोधनाः = यश (कीर्ति) को ही धन समझने (मानने) वाले, यश ही है धन जिनका ऐसे, यश रूपी धन वाले। भवाशाः = आप (युधिष्ठिर) जैसे व्यक्ति, आपके सदृश व्यक्ति । ईशं = ऐसे, इस
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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