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प्रथमः सर्गः
घण्टापथ - अनारतमिति । अनारतम् अजस्रम् | मणिपीठशायिनौ मणिमयपादपीठस्थायिनौ यौ चरणौ राजशिरःस्रजां नमद्भूपालमौलिखनां रजः परागः अरब्जयत् तौ ते चरणौ मृगैः द्विजैश्च तपस्विभिः आलूनशिखेषु विषु वर्हिषां कुशानाम् । 'वर्हिः कुशहुताशयो:' इति विश्वः । वनेषु काननेषु निषीदतः तिष्ठतः ॥ ४० ॥
द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलमुन्मूलयतीव मे मनः । परैरपर्यासितवीर्य सम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम् ॥४१॥
अ० - यत् इयं दशा द्विषन्निमित्ता ततः मे मनः समूलम् उन्मूलयति इव । परैः अपर्यासितवीर्यसम्पदां मानिनां पराभवः अपि उत्सवः एव ( भवति ) ।
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श० - यत् = यतः, क्योंकि । इयं दशा = यह दशा ( दुर्दशा ) । द्विषन्निमित्ता = शत्रु ( कौरव) हैं निमित्त (कारण) जिसके ऐसी, शत्रुओं के कारण उत्पन्न हुई, शत्रुकृत, शत्रुजन्य है । ततः = अतः, इसलिए । मे मनः = मेरे मन को । समूलम् = जड़ सहित, जड़ से, पूर्ण रूप से । उन्मूलयति इव = उखाड़ सी रही है, उखाड़ जैसे रही है, मानो उखाड़ रही है। परैः = शत्रुओं के द्वारा । अपर्यासितवीर्यसम्पदां = नष्ट (समाप्त) नहीं की गई है पराक्रम रूपी सम्पत्ति ( अथवा पराक्रम और सम्पत्ति ) जिनकी ऐसे । मानिनां = मनस्विजनों का स्वाभिमानी पुरुषों का । पराभवः अपि = पराजय, तिरस्कार, विपत्ति भी । उत्सवः एव = उत्सव ( सुखप्रद, हर्ष का हेतु ) ही है ।
अनुवाद -यतः ( क्योंकि ) ( आप और हम सब लोगों की ) यह दशा (दुर्दशा) शत्रुओं ( कौरवों) के कारण है, अतः ( यह दुर्दशा ) मेरे मन को जड़सहित (समूल, पूर्ण रूप से ) उखाड़ सी रही है ( अर्थात् मुझे अत्यधिकव्यथित कर रही है ) । जिन मनस्विजनों (स्वाभिमानी पुरुषों ) की पराक्रम रूपी सम्पत्ति (पराक्रम और सम्पत्ति ) शत्रुओं के द्वारा विनष्ट ( समाप्त) नहीं होती उनके लिए पराजय (विपत्ति ) भी उत्सव ( हर्ष का हेतु ) ही है ।
सं० व्या० - मनस्विजनानां कृते मानहानिः दुःसहा भवति न स्वापदि