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किरातार्जुनीयम् अच, इस समय । वल्कवासांसि = वल्कल रूप वस्त्रों को, वल्फल ( वृक्षों के त्वचा = छाल) वस्त्रों को। आहरन् = (वृक्षों से) लाता हुआ, जुटात हुआ । तव मन्यु = (शत्रु के प्रति) तुम्हारे क्रोध को । कथं न करोति = क्य उत्पन्न नहीं करता है।
अनु०-इन्द्र के तुल्य (पराक्रमी) नो (अर्जुन) उत्तर कुरु देश के जीतकर प्रचुर सुवर्ण रजतादि धन (आप को) दिया करता था वही (धन के जीतने वाला) अर्जुन इस समय वल्कल वस्त्रों को जुटाता हुआ (वृक्षों से लाता हुआ) आप के (शत्रु के प्रति) क्रोध को क्यों नहीं उत्पन्न करता है।
सं० व्या०-अत्र अर्जुनस्य दयनीयामवस्थामुक्त्वा द्रौपदी युधिष्ठिरस्य कोपी डीपनं कर्तुमिच्छति । इन्द्रतुल्यः यः अर्जुनः पुरा उत्तरान् कुरुप्रदेशान् विजित्य प्रचुर सुवर्णरजतात्मकं धन तुभ्यं दत्तवान् सः एव धनञ्जयः सम्प्रति वस्त्रनिर्माणार्थ वृक्षेन्यः वल्कलवस्त्राणि आनयति । अर्जुनस्य एषा दीनदशा करमात् कारणात् तव चेतसि शत्रन् प्रति क्रोधं नोत्पादयति । अर्जुनस्य दीनदशामवलोक्य भवता कोपिना भवितव्यमित्यर्थः।
स०-वासवः उपमा (उपमानम् ) यस्य सः वासवोपमः (बहु०)।न कुप्यम् अकुप्यम् (नन समास)। धनं जयतीति धनञ्जयः ( उपपद समास)। वल्कानि एव वासांसि इति कल्कवासांसि (कर्मधा०)।
व्या०-विजित्य-वि+जि+क्त्वा-ल्यप् । अयच्छत्-दा+लङ् लकार, अन्यपुरुष, एकवचन । आहरन्-आ+ह+शत+प्रथमा, एकवचन ।
टि०-इस श्लोक में अर्जुन की पूर्व दशा और वतमान दशा में वैषम्य का निरूपण सुन्दर ढंग से किया गया है । शत्रुओं को पराजित करके अर्जुन उनके धन को लाकर युधिष्ठिर को देता था। अब वही अर्जुन वृक्षों से वल्कलों (छालों) को लाकर युधिष्ठिर को देता है। इन्द्र के समान पराक्रमी अर्जुन की शक्ति का कितना दुरुपयोग हो रहा है। इससे अर्जुन को तथा अर्जुन से स्नेह करने वाले व्यक्तियों को कितना फष्ट हो रहा होगा।
घण्टापथ-विजित्येति । वासवः इन्द्रः उपमा उपमानं यस्य सः वासवोपमः इन्द्रतुल्यः। यो धनजयः। उत्तरान् कुरून् मेरोगत्तरान् मानुषान्