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यही है जिंदगी
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सहने की शक्ति देना मेरे देव
परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करता हूँ : 'हे परमात्मन्! प्रतिकूलताओं को सहने की शक्ति मुझे दो! प्रतिकूलताएँ जब मुझे घेर ले, तब मैं अभय बना रहूँ और आत्मध्यान में स्थिर बना रहूँ | प्रतिकूल संयोगों में, प्रतिकूल परिस्थितियों में मेरा मन चंचल न हो, मेरा चित्त अस्वस्थ न हो... ऐसा कुछ कर दो।'
हृदय में श्रद्धा का दीपक कभी-कभी मंद हो जाता है... कभी भय लगता है कि यह दीपक बुझ न जाय! श्रद्धा का सहारा यदि चला गया तो यह जीवन बेसहारा बनकर संसार में भटक जायेगा...।
'अनुकूल संयोगों में, अनुकूल परिस्थितियों में क्या धर्मपुरुषार्थ कर लिया जाता है? अनुकूलताओं का फायदा क्या आत्मविकास की दृष्टि से उठाया जा रहा है?' जब मैं अपनी अंतरात्मा से ये प्रश्न पूछता हूँ, प्रत्युत्तर नहीं मिलता है। गहरी वेदना अनुभूत होती है।
तब एक भय-प्रेरित विचार आता है : 'अनुकूल परिस्थिति में जब आत्मविकास का पुरुषार्थ नहीं हो पाता है, तब प्रतिकूल परिस्थिति में क्या होगा? प्रतिकूल संयोगों में धर्मध्यान कैसे बना रहेगा? जीवन में प्रतिकूलताएँ ही ज्यादा होती हैं... क्योंकि पापकर्मों का बोझ ज्यादा है... पुण्यकर्म बहुत थोड़े हैं।
किसी के भी जीवन में सभी प्रकार की अनुकूलताएँ नहीं होती हैं। कोई न कोई प्रतिकूलता तो होती ही है। बड़ा सत्ताधीश हो, बहुत बड़ा श्रीमंत हो, महान प्रज्ञावंत हो... या ज्ञानी हो! कोई न कोई प्रतिकूलता जीवन के साथ जुड़ी हुई होती ही है। दूसरी ओर मन का स्वभाव बड़ा विचित्र है। मन बारबार प्रतिकूलता की ओर आकर्षित होता है। अनुकूलताएँ होने पर भी प्रतिकूलता के साथ मन जुड़ जाता है और अशांत बना रहता है। __जब धर्मग्रन्थों में बड़े-बड़े महात्माओं को घोर कष्टों के बीच स्थिर, स्वस्थ
और निश्चल देखता हूँ... तब मुझे मेरी निःसत्त्वता पर, पामरता पर नफरत सी पैदा हो जाती है। आजकल उतने घोर कष्ट कहाँ आते हैं? कौन मेरे कानों में कीले गाड़ने आता है? कौन मुझ पर कालचक्र का प्रहार करने आता है? कौन सर पर अंगारे भरने आता है? कौन तलवार का प्रहार करने आता है? कौन मुझे पत्थर मारने आता है? कौन शरीर की चमड़ी उतारने आता है?
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