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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी ३०. विरति पर विरक्तिभरी... __ 'विरति तो है, विरक्ति है क्या?' यह प्रश्न किसी दूसरे का नहीं है, मेरे ही हृदय का है। विरति यानी त्याग, विरक्ति यानी वैराग्य। संसार के प्रति वैराग्य होना, संसार के इन्द्रिय विषयक सुखों के प्रति वैराग्य होना एक बात है, और साधुजीवन के प्रति आकर्षण होना दूसरी बात है। वैराग्य के बिना भी साधुजीवन के प्रति आकर्षण पैदा हो सकता है... साधुता का स्वीकार भी हो सकता है। परन्तु वैराग्यहीन साधुजीवन में आत्मानन्द की अनुभूति नहीं हो सकती है। साधुजीवन यानी पापत्याग का जीवन । इस जीवन पर जब इन्द्रियों का उन्माद छा जाता है, कषायों की आग लग जाती है, वैभवों की तृष्णा फैल जाती है, तब त्याग की भावना विलुप्त हो जाती है। पाप प्यारे लगने लगते हैं... जीवन में पापों का प्रवेश हो जाता है। ___ एक दफा पापों का त्याग कर दिया, इतने मात्र से मैं विरागी बन गया... ऐसा मान लेना भ्रम है। इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में पुनः-पुनः लोलुपता से प्रवेश होता हो और वैराग्य? कभी क्रोध, कभी अभिमान, कभी माया... कभी लोभ... होता ही रहता है... फिर भी वैराग्य? ऐशो-आराम का जीवन हो... फिर भी वैराग्य? __विरति का जीवन यानी पापत्याग का जीवन | स्वीकार करने के बाद वैराग्य तभी अखंडित रह सकता है जब विषय-विराग हो, कषाय-विजय हो और ऐशो-आराम से निवृत्ति हो। पापों से विरक्त होना सरल है, पापराग से विरक्त होना सरल नहीं है। इसलिए एक महर्षि ने कहा : 'विरागमार्गविजयो दुरधिगम्यः' ___ मैंने मेरे जीवन में अनुभव भी किया हैं कि विरागमार्ग पर चलना आसान नहीं है। पापराग की वासनाओं को निर्मूल करना सरल नहीं है। जब तक पापों का राग नहीं टूटता... वैराग्य नहीं आता। जब-जब हृदय को टटोलता हूँ, पापराग की आग सुलगती दिखती है। असंख्य विषयों में इष्ट-अनिष्ट और प्रियाप्रिय की कल्पनाएँ अखंडित बैठी है... फिर वैराग्य कैसा? यह अच्छा, यह बुरा! यह For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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