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यही है जिंदगी का मान, स्वाभिमान = आत्मा का अभिमान | आत्मा का अभिमान तो होना चाहिए! आत्मा के अस्तित्व की सभानता, शुद्ध आत्मस्वरूप की सभानता होनी ही चाहिए। ___ मैं जड़ नहीं हूँ, पौद्गलिक नहीं हूँ, मैं चैतन्य-स्वरूप आत्मतत्त्व हूँ। अनादि-काल से जड़ कर्म-पुद्गलों ने मुझ पर आधिपत्य स्थापित किया है... मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं वे कर्म-परमाणु, कि जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही न हो! उन जड़ कर्म-परमाणुओं से मुझमें अनंत गुनी ज्यादा शक्ति है... मैं अब कर्मों की सिरजोरी सहन नहीं कर सकता...! ___ मैं पूर्ण ज्ञानी और पूर्णानन्दी हूँ और मुझे इन कर्मों ने अज्ञानी और विषादपूर्ण बना दिया है, इसको मैं मेरा अपमान समझता हूँ। मैं अकषायीवीतराग हूँ। दुष्ट कर्मों ने मुझे रागी-द्वेषी बना दिया है, मैं इसको मेरा घोर अपमान मानता हूँ। मैं अनंत शक्ति का मालिक हूँ, इन कर्मों ने मुझे अशक्त, निर्वीर्य और कायर बना दिया है, इसको मैं अपना अपमान समझता हूँ। मैं अमूर्त हूँ, अरूपी हूँ, कर्मों ने मुझे मूर्त और रूपी-बहुरूपी बना दिया है, क्या यह मेरा अपमान नहीं है? मैं जन्म-मृत्यु से मुक्त हूँ, अजन्मा और अमर हूँ, कर्मों ने मुझे जन्म-मृत्यु की जाल में फंसा दिया है, क्या यह मेरा स्वमान-भंग नहीं है? __ऐसा आत्माभिमान तो होना ही चाहिए मनुष्य में । आत्मस्वरूप का अपमान, आत्मस्वरूप की अवहेलना बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए।
देहाभिमान जरा भी नहीं होना चाहिए। किसी ने मेरा अपमान कर दिया, मेरे बाह्य व्यक्तित्व को ठुकरा दिया, मेरे नाम को बदनाम किया, भले किया। मुझे इसमें मेरा अपमान नहीं मानना चाहिए | सम्मान और अपमान, दोनों कर्मों की भेंट है!
स्वमान और स्वाभिमान का रहस्योद्घाटन हो गया! मन आनंद से भर गया! अब स्वमानी बने रहने में मजा आ जायेगा! अपमान सहजता से सहन करने की कला प्राप्त हो गई!
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