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यही है जिंदगी से सुरभित अंतःकरण में। परमात्मा की प्रतिष्ठा हो जाए, तो ही समरस की प्राप्ति होगी, अन्यथा नहीं। परमामृत का आस्वाद तभी हो सकता है। सिर्फ मन्दिरों में परमात्म-प्रतिमा की प्रतिष्ठा करने से आत्मभाव निर्मल नहीं बनते, आत्मा में संवादिता की शहनाई नहीं बजती। मनोमंदिर में संवाद की प्रतिष्ठा होनी चाहिए।
विवाद... विसंवाद का कितना घृणास्पद शोर मचा है? विवादजन्य विजय का उन्माद... विवादजन्य पराजय का करुण क्रन्दन...| हर्ष और विषाद के विषचक्र में फँस गया है मेरा मन | कब मुक्त होगा मन इस विषचक्र से...? काल अविरत गति से व्यतीत हो रहा है... मानवजीवन का समय द्रुत गति से निकल रहा है। ___अंतरात्मा संवाद चाहती है। संवादिता की चाह है अंतरात्मा को। परन्तु वासनावासित मन विवाद में उलझ रहा है, यह भी विसंवाद है न! आन्तर संघर्ष! भले संघर्ष चलता रहे, संघर्ष का परिणाम यदि संवादिता में आ जाय तो बस!
इन्द्रियाँ शान्त हो जाए और मन प्रशान्त हो जाए तो संवाद ही संवाद है। प्रशान्त मन में परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, शान्त इन्द्रियाँ उस प्रतिबिम्ब में केंद्रित होती हैं... तब अपूर्व समत्व की उपलब्धि होती है। परमात्मा की वीतरागता और सर्वज्ञता जब मन को भा जाती है... तब सहज रूप से परमात्मा का मनोमन्दिर में पदार्पण हो जाता है। परमात्मा का पदार्पण होने पर कोई विवाद नहीं रहता, कोई विसंवाद नहीं रहता।
मैं तो इतना समझता हूँ कि मनुष्य के मनोमंदिर में परमात्मतत्त्व की स्थापना हुए बिना संवाद की शहनाई नहीं बज सकती।
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