________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
४४
वय खिला दो कमल, कृपासिंधु
. खिला दो कमल, कृ
निर्वाण!
कार्तिक अमावस्या... मध्यरात्रि... श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हो गया...। सदेह भगवान विदेह हो गए। पार्थिव देह के बंधनों से चैतन्य मुक्त हो गया... रूपी-अरूपी बन गया... मूर्त अमूर्त बन गया...!
अब उस अरूपी, अमूर्त... पूर्णात्मा को कभी भी जन्म नहीं लेना होगा... कभी भी व्याधि-वेदना नहीं... कभी भी मृत्यु नहीं! आत्मा का पूर्ण स्वाधीन अस्तित्व!
अनंत-अनंत मुक्तात्माओं का संपूर्ण स्वाधीन साम्राज्य! उस साम्राज्य में परमात्मा महावीर का अस्तित्व विलीन हो गया... अब वहाँ वे 'महावीर' नहीं रहे। कोई नाम नहीं... सभी वहाँ अनामी! अनामी मुक्तात्माओं की विराट दुनिया में खो गए मेरे परम प्रिय परमात्मा...!
प्रभो! अब मैं कितना भी पुकारूँ आपको, आप मेरी पुकार सुनोगे, परंतु आप मेरे पास नहीं आओगे न? आप मेरी करुणास्पद स्थिति देखने पर भी मेरे पास नहीं आओगे न? कैसे आओगे आप? वहाँ गया हुआ कोई भी इस पार्थिव दुनिया में लौटता नहीं है... मैं आपके पास आ सकता हूँ... आप मेरे पास नहीं आ सकते... यह कैसा बंधन है? । ___ अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन... अनंत वीर्य... अनंत आनंद आपने पा लिया मेरे परमात्मा! आप कृतकृत्य हो गए.. आप सिद्ध-बुद्ध हो गए। जो आपने पा लिया... क्या मुझे उस दिव्यातिदिव्य स्वरूप की प्राप्ति हो सकती है? आप क्या मुझे वह उपलब्ध करा सकते हो? ओ परम कृपासिन्धु! मुझे तो आपके पास ही ले लो। हे विश्वेश्वर! आपके निर्वाण का दिन मेरे लिए दिव्य प्रेरणास्रोत बन गया है। कई बार... उस मध्यरात्रि के समय आपका निरंतर स्मरण करते-करते हृदय व्याकुल बन गया है। आँखें डबडबा गई हैं... क्या कहूँ मेरे नाथ, आप देख ही रहे हो... आप सब कुछ जानते हो... मेरे अंतर्यामी! मेरी व्याकुलता... मेरी विवशता...आप कब तक दूर करोगे? आपके सिवा मेरा है भी कौन?
निकल पड़ा हूँ आपके पास आने के लिए... मेरे नाथ! मैंने घर छोड़ दिया है, माता-पिता, स्नेही-स्वजन वगैरह का त्याग कर दिया है... चल पड़ा हूँ
For Private And Personal Use Only