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यही है जिंदगी
३७ गन्ध ग्रहण करती है, ये सब पर्याय हैं। दृश्य जगत पर्यायों का जगत है। हम दृश्य जगत को ही देखते हैं... परन्तु दृश्य जगत का आधार अदृश्य द्रव्यों का जगत नहीं देखते, समझते भी नहीं... यही हमारी करुणता है। ___ पर्यायों से क्या प्रेम करना? और क्या द्वेष करना? परिवर्तनशील अवस्थाओं के प्रति राग या द्वेष करने का परिणाम दुःख और अशांति ही है। मैंने कई बार सोचा : 'मुझे अशांति क्यों हुई? मुझे उद्वेग क्यों हुआ?' मुझे अपनी अंतरात्मा में से प्रत्युत्तर मिला : 'तू पर्यायों के प्रति राग-द्वेष करता रहेगा, तब तक तुझे अशांति और उद्वेग ही मिलेगा। तू यदि अशांति नहीं चाहता है, क्लेश और संताप से मुक्त होना चाहता हैं तो पर्यायों के प्रति राग-द्वेष करना छोड़ दे। शुद्ध आत्मद्रव्य का अनुरागी बन | जो सदैव शिव है, अचल है, अमर है, अनंत है, अव्याबाध है, ऐसे आत्मद्रव्य का प्रेमी बन। सब जीवात्माओं के प्रति आत्मदृष्टि से देख | जीवों के रूप, रंग, देह, इन्द्रियाँ आदि पर्यायों को मत देख | देख भी ले तो उन पर राग-द्वेष मत कर । देह में रहे हुए परन्तु देह से भिन्न आत्मद्रव्य को देख।
द्रव्यदर्शन का पुनः पुनः अभ्यास पर्यायदर्शन की अनादि आदत से मुक्त करता है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि मैं पर्यायों का सिर्फ ज्ञाता और दृष्टा ही बना रहूँ... न राग, न द्वेष! कब ऐसा धन्यातिधन्य अवसर आएगा... नहीं जानता हूँ!
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