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यही है जिंदगी
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१६. होना मुझ को निर्बंधन ३
बंधन, बंधन ही रहेगा! भले वह बंधन द्रव्य का हो, क्षेत्र का हो, काल का हो या भाव का हो । भले बंधनों में अल्प समय के लिए मजा आता तो, आनंद मिलता हो... फिर भी वे बंधन हैं... बंधन में करुण क्रन्दन छुपा हुआ पड़ा है।
राग प्रबल बंधन है! द्वेष इतना प्रबल बंधन नहीं है । आन्तर-प्रतिबंध ही बंधन है, बाह्य बंधन उस आन्तर-प्रतिबंध पर अवलंबित है। परंतु बाह्य बंधनों में व्यथित मनुष्य को आन्तरिक बन्धनों के विषय में विचार ही नहीं आता।
'मुझे ऐसे वस्त्र ही चाहिए', - मिल गए वैसे वस्त्र, मुझे आनंद हुआ । परंतु जब एक दिन मुझे मनचाहे वस्त्र नहीं मिले, मुझे कितना दुःख हुआ था! कैसी घोर व्यथा अनुभव की थी मैंने! 'मुझे तो इस नगर में ही रहना पसंद है, मुझे उस नगर में निवास मिल गया, मैं बहुत प्रसन्न हुआ, उस नगर से मुझे प्यार हो गया! परंतु एक दिन मुझे जब वह नगर छोड़कर जाना पड़ा था... मुझे कितनी वेदना हुई थी? मैं कैसा मोहमूढ़ हो गया था? 'मुझे सर्दी के दिन ही अच्छे लगते हैं... गर्मी में तो मर जाता हूँ...' मेरे मन में ऐसी ग्रंथि बंध गई थी? जब-जब सर्दी के दिन आते थे, मैं खुश होता था और जब गर्मी के दिन आते थे, मैं नाराज हो जाता था, मुरझा जाता था। 'मेरे प्रति मेरे सहवासियों का प्रेम होना चाहिए, सद्भाव होना चाहिए... मुझे उनके स्नेह-भरपूर शब्द सुनने मिलने चाहिए...' जब-जब मुझे उनका प्रेम, स्नेह और सद्भाव मिला, मैंने निरवधि आनंद पाया। परंतु जब मुझे उन लोगों से स्नेह और सद्भाव मिलना बंद हो गया, मैंने घोर वेदना अनुभव की। __ बन्धनों में आनंद क्षणों का, उद्वेग दिनों का | आनंद दिनों का, उद्वेग महीनों का | बन्धनों में निरन्तर आनंद कहाँ से मिले? बन्धनों में सदैव सुख कहाँ से मिले? जब तक हृदय निर्बंधन न बने तब तक लगातार आन्तर आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। इसलिए मैं चाहता हूँ कि मेरा हृदय निबंधन बने । राग के बंधन से मुक्त बने ।
विराग... विरक्ति की महिमा अब मैं समझा। उस श्लोक का पाठ तो वर्षों से कर रहा था।
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