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यही है जिंदगी
१५. बाहर भोगी : भीतर योगी
बाहर योगी : भीतर भोगी
करोड़ों रुपयों की संपत्ति चोर उठाकर ले जाते हों, संपत्ति का मालिक स्वयं देखता हो... फिर भी वह चोर को रोकता नहीं है... शोर नहीं मचाता है! उसके मन में कोई चिंता नहीं होती है...! कैसा होगा वह आदमी! हाँ, वह साधु नहीं था, त्यागी या संन्यासी नहीं था... वह था एक सदगृहस्थ! ग्यारह करोड़ रुपयों का मालिक और ग्यारह पत्नियों का पतिदेव । उसका नाम था श्रेष्ठि सुव्रत।
इस विचार ने मेरी निद्रा छीन ली। 'यह कैसे संभव हुआ होगा? क्या ऐसा संभव हो सकता है? मेरे जीवन में यह कैसे संभव हो सकता है? मेरे वस्त्र, पात्र, पुस्तक मेरे देखते हुए कोई उठा ले जाये... फिर भी मेरे मन में कोई ग्लानि न हो! उठा ले जाने वाले के प्रति रोष न हो! हाँ, आज तो मैं कैसी मनःस्थिति में जी रहा हूँ? श्रमण होते हुए भी रमण करता हूँ पुद्गलभावों में। कोई मेरा पात्र ले जाता है, मुझे पूछे बिना ले जाता है, तो भी मुखमुद्रा और मन बिगड़ जाते हैं! कोई चोर नहीं, कोई दूसरा श्रमण ही ले जाता हो, मैं रोक देता हूँ...। मेरी इस मनोदशा पर आज मुझे घोर घृणा हो आई.. और मैं उस महामना साधुहृदय सुव्रत श्रेष्ठि के पास दौड़ गया।
'श्रेष्ठिवर्य! तुम संसारी होते हुए भी साधुहृदय, विरक्त महात्मा हो। करोड़ों की संपत्ति के बीच रहते हुए भी मूर्छारहित अपरिग्रही सन्त पुरुष हो! तुम्हारी कितनी उच्चतम आत्मस्थिति? संपत्ति पर राग नहीं, चोरों पर द्वेष नहीं! चोरों पर कितनी करुणा बरसायी आपने? अपराधी के प्रति भी करुणा? कैसे की आपने करुणा? मुझे तो अपने अपराधी के प्रति तिरस्कार हो आता है। अपराधी को दूसरा कोई सजा करता हो तो मेरा मन नाचने लगता है। जबकि आप तो दौड़े राजा के पास और माँग लिया अभयदान उन चोरों के लिए। ___ सचमुच, तुम्हारी कहानी मेरे लिए आज पहेली बन गई है। मैं अन्तःकरण से कहता हूँ, मुझे तुम जैसी निर्लेप आत्मदशा ही पसंद है। वैसी आत्मदशा प्राप्त करने के लिए तो मैंने यह साधनामार्ग लिया है। मुझे जिनवचन पर श्रद्धा है - ऐसा मैं मानता हूँ। मेरे पास शास्त्रज्ञान है, इसमें संदेह नहीं। मैं अनेक
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