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यही है जिंदगी
१४. अपेक्षा तैरा भी दे... गिरा भी दे...
'सावेक्खो बुडडई' - सापेक्ष जीव डूबता है। यह आर्षवाणी है। बात निःसंदेह सत्य है। परंतु यह बात जितनी व्यवहार में सत्य है, विचारों में विपरीत है। निरपेक्ष विचारों वाला जीव डूबता है! इसका अर्थ यही कि :
O व्यवहार में निरपेक्ष रहो। 0 विचार में सापेक्ष रहो।
समग्र जीवन व्यवहार में निरपेक्ष भाव से जीना ही सुख और शांति का सही मार्ग है। किसी व्यक्ति से, किसी पदार्थ से, किसी स्थान से, किसी काल से बंधना नहीं! निबंधन जीवन जीना। यदि इसमें से किसी से भी बंध गए तो अशांति की आग लगी समझो। इस व्यक्ति के बिना नहीं चल सकता...' इस प्रकार के मानसिक बंधन नहीं चाहिए। निबंधन रहते हुए भी सबके साथ व्यवहार चल सकता है। सभी प्रकार के संबंध निभाये जा सकते हैं। खाना, पीना, रहना... सब कुछ हो सकता है।
वैसे, दूसरे मनुष्यों के अच्छे-बुरे भावों की भी अपेक्षा नहीं चाहिए । 'उसका मेरे प्रति प्रेम होना चाहिए।' यह भी एक अपेक्षा है । 'उसका मेरे प्रति द्वेषभाव नहीं होना चाहिए।' यह भी एक अपेक्षा है। ऐसी असंख्य अपेक्षाओं में मनुष्य खो गया है। अपनी शांति, अपनी प्रसन्नता सब कुछ उसने खो दिया है। वैसे, अपेक्षाओं का अंत नहीं है। अनंत अपेक्षाओं के सागर में डूबा हुआ मनुष्य घोर मानसिक पीड़ाओं का अनुभव करता है। अनेक प्रकार के हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों का आचरण करता है। इसलिए अपेक्षाओं का मूल से उच्छेद करने का भगवान महावीरस्वामी ने उपदेश दिया था।
हमारी विचारधारा सापेक्ष चाहिए। जिनवचन की अपेक्षा से होनी चाहिए | हमारा एक-एक विचार जिनवचन के अनुरूप होना चाहिए। इसके लिए हमें जिनवचन का यथार्थ अवबोध होना चाहिए। सत्य सदैव सापेक्ष होता है। निरपेक्ष बात कभी सत्य नहीं हो सकती।
जैन दर्शन ने जो 'सापेक्षवाद'-'अनेकान्तवाद'-'स्याद्वाद' का सिद्धांत प्रतिपादित किया है, उस सिद्धांत का हमें यथार्थ अवबोध होना चाहिए। इस सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान हुए बिना हमारी विचारधारा सत्य और सुन्दर नहीं हो सकती।
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