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यही है जिंदगी
१३. श्रद्धा का सहयोग
'जिस दुःख की कल्पना भी न हो, जिस आघात का आसार भी न मिला हो, वह दुःख, वह आघात अचानक आ जाए... उस समय मन अशान्त न हो, बेचैन न हो, व्यथित न हो - ऐसी मनःस्थिति का निर्माण कैसे हो? ऐसा निश्चल आत्मभाव कैसे प्राप्त हो?' ___ पैर वर्तमान पर चल रहे थे, मन अतीत की पगडंडियों पर चल रहा था। वन नीरव था, पवन शीतल था, नीलाकाश के नीचे पंख फैलाये पंखी निराबाध उड़ रहे थे। चिंतन का मार्ग साफ था। ऐसे वातावरण में मजा आता है उस चिंतन में, अगम-अगोचर आनंद की दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं उस चिंतन में!
मेरा मन पहुँच गया उन सुदर्शन श्रेष्ठि के पास, उनकी धर्मपत्नी मनोरमा के पास । अभी-अभी ही सुदर्शन उस सूली के सिंहासन से उतरकर घर पर आए थे। घर के बाहर हजारों स्त्री-पुरुषों की भीड़ थी... वे सब सुदर्शन की जयजयकार कर रहे थे। मैं बड़ी मुश्किल से उस भीड़ को चीरता सुदर्शन की हवेली में पहुँचा | मैंने सुदर्शन के चरणों में बैठी उस सुशीला, सुप्रसन्ना, सन्नारी मनोरमा को देखा। दोनों ने मेरा सत्कार किया, आसन प्रदान किया। मैंने मनोरमा से प्रश्न किया : 'मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।' 'अवश्य निःसंकोच पूछे ।' मनोरमा ने अपने पति के सामने देखते हुए मुझे प्रत्युत्तर दिया । मुझे देखकर हवेली में से ३-४ देवकुमार जैसे लड़के भी वहाँ आ गए और मनोरमा के आसपास बैठ गए। मैं समझ गया कि ये सुदर्शन के ही पुत्र हैं। मैंने प्रश्न किया : ___ 'देवी, सुदर्शन श्रेष्ठि पर कल्पनातीत कलंक आया, कल्पनातीत सजा हुई... आपके परिवार पर घोर संकट आया, उस समय आपके मन की स्थिति कैसी रही थी? उस समय आपने क्या किया था? मनोरमा की दृष्टि जमीन पर स्थिर थी। वह मेरा प्रश्न ध्यान से सुन रही थी। उसने प्रत्युत्तर दिया :
'प्रातःकाल जब मैंने उनके ऊपर लगाये गए इल्जाम के विषय में बात सुनी, मैं क्षणभर स्तब्ध रह गई थी। परंतु मुझे उन पर, उनके अकलंकित चरित्र पर पूर्ण विश्वास था। ऐसा अकार्य उनके जीवन में कभी भी नहीं हो सकता । अवश्य किसी पूर्वकृत पापकर्म के उदय से घटना बनी है। बाद में जब
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