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यही है जिंदगी
खा. जीवन की परिभाषा
__ मानव जीवन का अनुरोध है अनंत और अखंड की ओर आगे बढ़ना। जबकि वर्तमान जीवन की परिभाषा हो गई है केवल संघर्ष! स्वार्थों के लिए संघर्ष! मान और तृष्णा के लिए संघर्ष! उसमें उद्देश्य है केवल अपने तुच्छ पार्थिव स्वार्थ और अहंकार की तुष्टि!
वर्षा होने के पश्चात् रात्रि की नीरवता चिंतन को गहन बना रही थी। संसार के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों पर दृष्टि दौड़ रही थी। खोज रही थी मेरी दृष्टि धर्म का शासन । कहाँ है धर्म का शासन? सर्वत्र आतंक का शासन है। स्वार्थों और अहंकारों का संगठन है। कहाँ है आत्महित और आत्मरक्षा की भावना? कहाँ है जीवमात्र के प्रति मैत्री और करुणा की पवित्र कामना? लुप्त हो गए हैं न्याय-अन्याय, नीति-अनीति और पुण्य-पाप के भेद | गुप्त पड़े हैं धर्म, योग और अध्यात्म के गहन रहस्य ।
हृदय में एक तीव्र वेदना और गहरी व्यथा-सी होने लगी। जब धर्मक्षेत्र में भी... देखता हूँ - ओह! क्या यह भी हो सकता है साधु का रूप? संत का रूप? क्यों निर्दयतापूर्वक अपने ही भावप्राणों की हत्या कर रहा है? क्या है इसका प्रयोजन? कुछ सबल पुरुषों की महत्त्वाकांक्षाओं और मान-तृष्णा की तृप्ति के लिए अज्ञानी और विवश जीवों का इतना निर्मम प्रपीड़न क्यों? मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान, पुण्य-वैभव... तप-जप, उसकी साधना-आराधना का क्या यही श्रेष्ठ रूप है? जब वर्तमान धर्मक्षेत्र में प्रवर्तमान गतिविधियों को देखता हूँ तो अपनी आँखों में लज्जा, मन में करुणा, आत्मा में ग्लानि और सन्ताप उभर आते हैं। ___ चाहे धर्मशास्त्रों का पाण्डित्य क्यों न हो, भले ही वाचस्पति को पराजित करनेवाली वाक्पटुता हो, भले ही काया को जर्जरित करनेवाली उग्र तपश्चर्या हो... परंतु करना क्या है? भौतिक शक्तियों और विभूतियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना है। वे नहीं जानते हैं कि स्वयं ही उन जड़ शक्तियों के दास हो गए हैं। अपने ही आत्मनाश को वे अपना आत्मविकास समझने की भ्रान्ति में पड़े हैं।
इस अपराध का उन्मूलन करना होगा। क्या यह छोटा अपराध है? धर्मक्षेत्र में क्लेश, संताप, अशांति और कोलाहल कैसे निभाया जा सकता है?
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