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यही है जिंदगी
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५. शुक्लध्यान का रास्ता : धर्मध्यान के महल में
जब उस महात्मा चिलातीपुत्र का विचार आता है, तब मन में एक तूफान सा उठता है। कैसा था वह चिलातीपुत्र ? एक श्रेष्ठि के वहाँ नौकर था बचपन से। सेठ की ही लड़की सुषमा से प्यार करने लगा था। सेठ को चिलातीपुत्र के बदइरादों का शायद ख़्याल भी नहीं होगा । सेठ ने चिलातीपुत्र को अपने घर से निकाल दिया। चिलातीपुत्र चला गया, परंतु अपने हृदय में वह सुषमा को साथ ले गया ।
दिन-रात सुषमा के विचारों में खोया-खोया चिलातीपुत्र जंगलों में भटकता है। उसका चित्त 'आर्तध्यान' और 'रौद्रध्यान' से जल रहा है। वह डाकू बन गया। डाकुओं का गिरोह बनाया, चिलाती उस गिरोह का सरदार बन गया । उसने सोचा... ‘माँगने से सुषमा मिलनेवाली नहीं, सुषमा के बिना मुझे चैन नहीं... किसी भी प्रकार से सुषमा को उठा लाऊँ...' एक दिन उसने अपने डाकू-साथियों के साथ सेठ के घर पर डाका डाल दिया ... चिलातीपुत्र ने सुषमा को उठाया और उसके साथियों ने धन-दौलत की गठरियाँ उठाई .. जंगल की तरफ सब भागने लगे।
सुषमा को अपने कंधे पर उठाकर चिलातीपुत्र भागा जा रहा था। सुषमा के पिता और सुषमा के चार भाइयों को सुषमा का अपहरण ज्ञात होते ही, घोड़े पर बैठकर, नंगी तलवारों के साथ वे डाकुओं के पीछे दौड़ पड़े। चिलातीपुत्र पैदल दौड़ रहा था... डाकू - साथीदारों को दूसरे रास्ते से भेजकर, वह दूसरे रास्ते... अकेला ही, सुषमा को उठाकर दौड़ रहा था। उसने घुड़सवारों की पदचाप सुनी। वह घबराया। सुषमा को उठाकर वह तीव्र गति से दौड़ नहीं सकता था... सुषमा को छोड़ भी नहीं सकता था.... क्योंकि सुषमा के लिए तो उसने यह साहस किया था। बेचारी सुषमा... कितनी कोमल... कितनी मुग्ध थी वह... बिना विरोध किए.. बहती जा रही थी चिलातीपुत्र के साथ ! चिलाती ने सुषमा की ओर देखा... उसकी आँखों में आँसू भर आए.. क्योंकि उसने अपने मन में एक भयानक विचार किया था.... 'मुझे सुषमा का मुख प्यारा है... मैं सुषमा को उठाकर अब भाग नहीं सकता..... पीछे घुड़सवार आ रहे हैं... मारा जाऊँगा... नहीं, मैं सुषमा का सिर ले जाऊँगा... उसका शरीर यहाँ रास्ते में छोड़ दूँगा...'
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