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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ यही है जिंदगी - यह अच्छा बिछौना है, यह बिछौना गन्दा है। - ये बरतन मूल्यवान हैं, ये बरतन घटिया किस्म के हैं। - यह मेरा अच्छा दोस्त है, यह अच्छा दोस्त नहीं...! भेद... भेद... और भेद! अच्छे-बुरे का भेद करता रहता हूँ और राग-द्वेष को बढ़ाता रहता हूँ। फिर भी मानता हूँ 'मैं ज्ञानी हूँ... मैं तपस्वी हूँ...!' - दुर्भाग्य मेरा यह है कि जहाँ मुझे भेद करना चाहिए, वहाँ मैं अभेद मानकर चलता हूँ। - शरीर और आत्मा में मैं भेद नहीं करता। - शुभ विचार और अशुभ विचार में मैं भेद नहीं करता। - हेय और उपादेय का भेद याद नहीं रहता। - तीर्थंकरों ने कहा है कि इन बातों में भेद करो। फिर भी मैं नहीं करता और मानता हूँ अपने आपको तीर्थंकर का परम उपासक! कभी-कभी एकान्त क्षणों में मेरा मन घोर व्यथा का अनुभव करता है। मेरे दंभ पर मन ही मन तिरस्कार छूटता है। - मुझे शरीर और आत्मा में भेदज्ञान करना है। - मुझे स्वजन और आत्मा में भेदज्ञान करना है। - मुझे परिजन और आत्मा में भेदज्ञान करना है। - मुझे वैभव-संपत्ति और आत्मा में भेदज्ञान करना है। - आत्मा को ही श्रेष्ठ और उत्तम समझना है। - शरीर, स्वजन, परिजन, वैभव-संपत्ति की ओर ममत्वहीन बनना है। अनासक्त बनना है। - और हे भगवंत! मुझे तो ऐसी अवस्था प्राप्त करनी है कि मिट्टी और सोना दोनों में कोई भेद नहीं दिखाई दे। संसार और मोक्ष में मुझे कोई भेद नहीं दिखाई दे। ___ - क्या मेरे लिये संभव है यह अवस्था? - मैं कई बार सोचता हूँ... निराशा ही हाथ लगती है। अपना मन मुझे कमजोर, अशक्त और चंचल लगता है। For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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