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यही है जिंदगी लगता हूँ', देखने के लिए 'आईना भवन' में गए | वहाँ बड़े-बड़े काँच लगे हुए थे... चक्रवर्ती ने अपनी शरीर-शोभा देखी, अपनी असाधारण सुंदरता देखकर मन ही मन खूब प्रसन्न हुए। परंतु वहाँ एक घटना बनी... साधारण घटना... जिसका कोई विशेष महत्त्व नहीं... वैसी घटना बनी... उनकी एक अंगुलि में से मुद्रिका निकल गई, जमीन पर गिर गई...! क्या यह कोई घटना है? क्या यह कोई प्रसंग है? यही बात है - अज्ञानी की दृष्टि में जो बात अर्थहीन होती है, ज्ञानी की दृष्टि में वही बात अर्थपूर्ण होती है! अज्ञानी की दृष्टि में जो बात महत्त्वपूर्ण होती है, ज्ञानी की दृष्टि में वही बात महत्त्वहीन होती है।
अंगुलि में से मुद्रिका निकल गई... मुद्रिकारहित अंगुलि को देखा... उस पर विचारधारा प्रवाहित हुई... ऐसी विचारधारा प्रस्फुरित हुई कि चक्रवर्ती अजर-अमर शाश्वत और पूर्ण आनंदमय आत्मा की अगम-अगोचर सृष्टि में पहुँच गए | बाह्य कोई परिवर्तन नहीं था, वही वैभवशाली वेशभूषा थी... वही ठाठबाट था। परिवर्तन था भीतर में | ध्यानमार्ग ही आत्मा को अगम-अगोचर भूमि पर पहुँचाता है। ध्यानमार्ग मिलता है ज्ञानदृष्टि से। भरत चक्रवर्ती ने ऐसा चिंतन किया - मुद्रिकारहित अंगुलि को देखकर | परिणामस्वरूप वे वीतराग बन गए, सर्वज्ञ बन गए!
राजर्षि ने एक बात सुनी - उस पर ऐसा चिंतन किया कि जो चिंतन सातवीं नर्क में ले जाय! चक्रवर्ती भरत ने एक घटना देखी - उस पर ऐसा चिंतन किया कि जो चिंतन आत्मा को वीतराग-सर्वज्ञ बना दे! आत्मा को पूर्णानन्दी बना दे!
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