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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी २०८ ९५. परमात्मा का विरह हे अरिहंत भगवंत! आपका गुणस्थानक तेरहवाँ होता है। शुक्ल लेश्या होती है। जब आपका आयुष्य पूर्ण होने वाला होता है... आप समवसरण में बिराज कर अन्तिम धर्मदेशना देते हैं। अनादि संयोग से आत्मा के साथ लगे हुए अनंत-अनंत कर्मों का आप चौदहवें गुणस्थानक पर नाश कर देते हैं । औदारिक-तैजस् और कार्मण शरीर के बंधन टूट जाते हैं... एक समय में ही आपकी महान आत्मा सिद्धशिला पर पहुँच जाती है। आपको परम पद प्राप्त हो गया... आप सिद्ध-मुक्त बन गये... परन्तु भगवंत! आपके जाने से यहाँ... इस भरतक्षेत्र में तो घोर अंधकार छा गया है। __ - राग-द्वेष के विपुल जल से भरे हुए संसार-सागर को आप तो तैर गये, परन्तु हम तो उसी सागर में डूबे हुए हैं। ___ - अब आपको वहाँ उपद्रव नहीं है... विघ्न नहीं है, परन्तु हम तो असंख्य उपद्रवों से ग्रस्त हैं, अपार विघ्नों से घिरे हुए हैं। - आप वहाँ पर अचल हो गये। आपकी आत्मा अचल हो गई। परन्तु हमारा परिभ्रमण तो चालू है... जन्म-मृत्यु पाते हुए चार गतियों में भटक रहे हैं। ___- आप वहाँ पर अक्षय बन गये! आपके अनंत गुणों का भंडार आपको मिल गया... अब उस भण्डार का कभी भी नाश होने वाला नहीं, परंतु हमारे आत्मगुण तो कभी प्रगट होते हैं... कभी अदृश्य हो जाते हैं! आप वहाँ चले गये भगवंत, वहाँ से अब कभी भी इस संसार में नहीं आयेंगे | हमारा क्या होगा? हम तो वहाँ आने से रहे... हमसे आप जैसी घोरवीर और उग्र साधना कहाँ होने वाली है? हमारा प्रमाद... आलस्य... रागद्वेष... मोह... कब दूर होनेवाले हैं? आपके बिना कौन दूर करने वाला है? आपके बिना कौन हमें मोहनिद्रा से जगाने वाला है? चारों तरफ अंधकार है प्रभो! आपके बिना प्रकाश की किरण देने वाला कौन है? For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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