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यही है जिंदगी
२०६
| ९४. परमात्मा की धर्म-प्रभावना
हे तीर्थंकर देव! जिस समवसरण में बिराजमान होकर आप धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं, उस समवसरण की कैसी अदभुत शोभा होती है! संपूर्ण समवसरण के ऊपर अशोकवृक्ष छाया हुआ रहता है। आपके मस्तक के ऊपर तीन छत्र रहते हैं। मस्तक के पृष्ठ भाग में 'भामंडल' होता है। आपके दोनों तरफ देव चंवर लेकर खड़े होते हैं। आकाश में से देव कुसुमवृष्टि करते हैं। दुंदुभि बजाकर घोषणा करते हैं 'ओ देवो और मानवो! यहाँ आईये और त्रिभुवनतारक करुणासागर तीर्थंकर भगवंत की धर्मदेशना सुनिए ।' हे उत्कृष्ट पुण्यराशि! आपका रूप उत्कृष्ट! आपका ज्ञान उत्कृष्ट! आपका पुण्य उत्कृष्ट! आपके भाव उत्कृष्ट! आपका सब कुछ उत्कृष्ट होता है!
आपके समवसरण में देव आते हैं, मनुष्य आते हैं, वैसे पशु और पक्षी भी आते हैं।
आपका धर्मोपदेश जैसे देव और मनुष्य समझते हैं, वैसे पशु और पक्षी भी समझते हैं।
जो आत्माएँ 'भव्य' होती हैं... कभी न कभी मोक्ष पाने वाली होती हैं... आपके दर्शन से उनके हृदयकमल खिल जाते हैं। आपका उपदेश सुनकर उनके प्रज्ञाकमल विकसित हो जाते हैं। उनकी मोहनिद्रा दूर होती है और वे आपकी चरण-शरण स्वीकार कर लेते हैं। ___ आप जिन प्रज्ञावंत पुरुषों को गणधर पद पर स्थापित करते हैं, उनको तीन पद प्रदान करते हो : 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा।' वे प्रज्ञावंत गणधर ये पद सुनकर वहीं पर 'द्वादशांगी' (बारह धर्मशास्त्र) की, मानसिक भूमिका पर रचना कर देते हैं।
हे भगवंत!
आपके गणधरों के रचे हुए उन धर्मशास्त्रों के कुछ अंश ही आज हमको मिले हैं। उसे भी हम पूरा नहीं समझते हैं। अपनी-अपनी अल्प बुद्धि से सब
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