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यही है जिंदगी
१८३ उसके पास नहीं है, इससे वह दुःखी होता है। एक सामान्य बात भी मनुष्य क्यों नहीं समझता है कि एक मनुष्य के पास सभी प्रकार के सुख नहीं हो सकते। जो सुख अपने पास हो, उसमें संतोष मानना और दूसरों का सुख देखकर प्रसन्न होना ही सुख का सच्चा मार्ग है। - परसुखतुष्टिर्मुदिता।
दूसरों के सुख देखकर संतुष्ट होना 'मुदिताभावना' है, यानी प्रमोद भावना।
प्रमोद भावना से प्रभावित मनुष्य कभी अपने आपको दुःखी अनुभव नहीं करता है। वह सदैव सुखी होता है।
- मन को बदलना पड़ेगा। विचारधारा बदलनी पड़ेगी। मनुष्य बदल सकता है अपनी विचारधारा को । मानसिक दुःखों से तभी मुक्ति मिल सकती
है
० ० ० हे भगवंत! मुझे नहीं चाहिए ज्ञान, मुझे नहीं चाहिए अज्ञान... मुझे चाहिए विशुद्ध प्रेम | ज्ञान ने मुझे अभिमानी बनाया है, अज्ञान ने मुझे उदंड बनाया है।
हे वीतराग!
मुझे नहीं चाहिए पवित्रता, मुझे नहीं चाहिए अपवित्रता.. मुझे चाहिए विशुद्ध प्रेम | पवित्रता ने मुझे चिंतित बनाया है, अपवित्रता ने मुझे अशान्तव्याकुल बनाया है।
हे अरिहंत! मुझे नहीं चाहिए धर्म, मुझे नहीं चाहिए अधर्म... मुझे चाहिए विशुद्ध प्रेम! धर्म ने मुझे रजोगुण दिया है, अधर्म ने मुझे तमोगुण दिया है...। हे करुणामय! मुझे विशुद्ध प्रेम प्रदान करो। ___ समग्र जीवसृष्टि को मैं मित्रता प्रदान कर सकूँ | सारी सृष्टि मुझे मित्रता की दृष्टि से देखे । आप ही ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकते हैं | मैंने आपकी शरण ली है, आप ही मेरे सर्वस्व हैं।
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