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यही है जिंदगी
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८१. जीवन तेरे रूप अनेक
देखना... केवल देखना... उसमें आनंद है...। -- मैंने पहाड़ देखा, पहाड़ का सौन्दर्य देखा... | मुझे इच्छा हुई कि मैं पहाड़ में खो जाऊँ... उसके शिखर पर पहुँच जाऊँ । जब मैं पहाड़ पर गया... वहाँ मुझे पत्थर ही पत्थर नजर आए... वृक्ष ही वृक्ष नजर आए। वह सौन्दर्य मुझे नहीं दिखा, जो मैंने दूर से देखा था।
- उसने पुष्प देखा, पुष्प का सौन्दर्य देखा | पुष्प पाने की इच्छा हुई। उसने उसे पा लिया... परन्तु ज्यों-ज्यों दिन ढलता गया, पुष्प का सौन्दर्य नष्ट होता गया...। वह रो पड़ा...। ___ - विश्व के सभी पदार्थों का सौन्दर्य देख कर, उन पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती रहेगी तब तक दुःख, अशांति और वेदना बनी रहेगी। - ज्ञान हो, बोध हो, परन्तु इच्छा नहीं होनी चाहिए। सच बात है। सम्बन्धों के विषय में भी इच्छा ही दुःख देती है। - जानता हूँ कि इच्छाएँ राग में से पैदा होती हैं। रागदशा को निर्मूल करने का सर्वज्ञ परमात्मा का उपदेश कितना यथार्थ है। __वीतरागता प्रगट होने पर इच्छाएँ नहीं रहती हैं। इसलिए प्रतिदिन वीतराग की उपासना करता हूँ। पर, यह उपासना कब पूर्ण होगी? मन कब इच्छाओं से मुक्त होगा? - मुझे बनना है केवल ज्ञाता और दृष्टा।
० ० ० हम दोनों परमात्मा के मंदिर में गये। उसने कहा : इस मूर्ति का पाषाण कितना सुन्दर है! कितना मूल्यवान है! शिल्पी ने कितनी सुन्दर मूर्ति बनायी है! मैं सुनता रहा, मौन। थोड़ी क्षणों के बाद मैंने कहा : मैं इस पाषाण की मूर्ति में परमात्मा का स्वरूप देखता हूँ | मुझे आँखों में करुणा का सागर दिखता है। हृदय में वीतरागता का शाश्वत दीपक जलता दिखायी देता है। मुख पर सर्वज्ञता का तेज दिखायी देता है...।
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