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यही है जिंदगी
१५९ दुःख मानना और दुःखदायी को सुखदायी मानना...| ऐसी एक अवस्था होती है जीवों की! जब तक चेतना की आध्यात्मिक विकासयात्रा शुरू नहीं होती है, तब तक यह अवस्था बनी रहती है। ऐसे जीवों के प्रति रोष क्यों करना? __ मैं जो बात हितकारी मानता हूँ उसके लिए, वह उस बात को अहितकारी मानता है... मान सकता है...। जो वस्तु जैसी है वैसी परखने की क्षमता सभी जीवों में नहीं होती है। समझाने पर समझने की क्षमता भी सभी जीवों में एक समान नहीं होती है। तो फिर वैसे अज्ञानी जीवों के प्रति दुर्भाव क्यों रखना? - सम्बन्धों का बंधन।
सम्बन्ध बंधन ही नहीं लगते हैं... जब तक आपस में प्रेम होता है। प्रेम नष्ट हो जाता है और सम्बन्ध का मृत कलेवर मस्तक पर उठाए जीना पड़ता है... वह बड़ा त्रास देता है।
दुनिया की निगाहों में सम्बन्ध का बड़ा महत्त्व है...। कुछ हद तक सम्बन्ध बनाये रखना आवश्यक भी है... परन्तु सम्बन्ध बंधन... अकाट्य बंधन तो हरगिज नहीं बनना चाहिए।
- सम्बन्धों में कर्तव्यपालन अनिवार्य होता है। यदि सम्बन्ध बनाये रखने हैं, तो पारस्परिक कर्तव्यों का पालन करना ही होगा। यदि कर्तव्यपालन में क्षति हुई तो सम्बन्ध दुःखदायी बन जायेगा।
कर्तव्यपालन का मार्ग सरल नहीं है। कर्तव्यपालन में कभी अपने स्वार्थों का विसर्जन करना भी आवश्यक होता है, वह यदि नहीं होता है, तो सम्बन्ध दुःखदायी बंधन बन जाता है।
- सम्बन्ध बाँधना सरल है, निभाना सरल नहीं है। सम्बन्ध बाँधता है मनुष्य सुख पाने के लिए ही, परन्तु सम्बन्ध दुःख का निमित्त भी बन जाता है।
- 'बिना किसी सम्बन्ध, क्या मैं जी सकता हूँ?' मैंने अपनी चेतना से एक दिन पूछ ही लिया। चेतना स्तब्ध हो गई। कभी इस प्रश्न पर गंभीरता से सोचा ही नहीं था। सम्बन्ध जीवन का पर्याय बन गया है।
सम्बन्ध के बिना जीवन की कोई कल्पना भी नहीं हो सकती। किसी न किसी व्यक्ति से या वस्तु से संबंध तो बना ही रहता है।
व्यक्तियों से संबंध। वस्तुओं से संबंध।
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