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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी १३६ अध्यात्मवाद मुझमें निरन्तर आनंद-परमानन्द पैदा करता रहे... और मैं विशुद्ध आत्मा का नैकट्य बनाये रखू... यही मेरी कामना हो। ० एक दम्पती ने अपने पुत्र को खो दिया। पुत्र की मौत हो गई। ज्यों-ज्यों स्नेही और मित्रों को समाचार मिले त्यों-त्यों मिलने के लिये आने लगे और आश्वासन देने लगे। ___ पिता ने कहा : हम नहीं मानते कि हमारा पुत्र मर गया है! वह हमसे दूर गया है। उसके समाचार हमें मिलते रहते हैं। हम स्वस्थ हैं। माता ने कहा : 'पुत्र आखिर तो एक आत्मा है! आत्मा अमर है! हम नहीं मानते कि आत्मा भी मरती है। हमें कोई दुःख नहीं है।' यह था 'प्रेक्टीकल स्पिरिच्युअलिजन्म' - जीवन में जीवंत अध्यात्म! ० एक महामुनि थे। कैन्सर ने मुनि के शरीर को घेर लिया। भक्तों ने कहा : 'ऑपरेशन करवा दें।' मुनि ने कहा : 'क्यों? कैन्सर शरीर को हुआ है, होने दो। मैं तो सच्चिदानन्द आत्मा हूँ। मैं निरोगी हूँ, मैं अमर हूँ। आप मेरी चिन्ता न करें। मैं आत्मभाव में लीन हूँ| सड़ना और गलना तो शरीर का स्वभाव है।' मुनि ने स्वभावस्थ दशा में देह का त्याग किया। यह था भौतिकता पर अध्यात्म का विजय! ० एक सद्गृहस्थ थे। उनके पास करोड़ों रुपये थे। एक दिन सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। स्नेही-स्वजन और मित्र... सब दूर हो गये। मैंने कहा : 'आप पर बहुत बड़ा दुःख आ गया...।' उन्होंने कहा : 'नहीं जी, मुझे तनिक भी दुःख नहीं है। मैंने सम्पत्ति के माध्यम से अपने आप को सुखी माना ही नहीं था। मैं जानता था, मानता था कि सम्पत्ति चंचल है, कभी भी जा सकती है। सम्पत्ति चली गई! जो नश्वर था वह नष्ट हो गया! मेरी अपनी आत्मगुणों की सम्पत्ति अविनाशी है और वह आज भी है! मैं प्रसन्न हूँ। यह था जीवित अध्यात्मवाद! इस अध्यात्मवाद ने मुझे खूब प्रभावित किया। For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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