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यही है जिंदगी
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है! मैं कुछ भी करता हूँ... यदि मेरा शुभकर्म होगा तो दुनिया में मेरी प्रतिष्ठा बनी रहेगी... यदि मेरा पापकर्म उदय में आएगा तो मेरी प्रतिष्ठा टिकने वाली नहीं है... फिर, क्यों न मैं अच्छे काम करता रहूँ। इसलिये, घबराये बिना दुनिया के सामने अपनी जीवन -किताब खुली रखनी चाहिए। दुनिया न तो दुःख दे सकती है, दुनिया न तो सुख दे सकती है। मुझे दुनिया से कुछ भी नहीं चाहिए...।'
इस विचारधारा में बहता रहता हूँ तो दुनिया तृणवत् लगती है । 'निस्पृहस्य तृणं जगत' यह आर्ष वचन निर्बल मन की 'बैटरी' को 'चार्ज' कर देता है ।
परसापेक्ष इज्जत-प्रतिष्ठा की कामना करना ही गलत है। परद्रव्यसापेक्ष और परव्यक्तिसापेक्ष इज्जत - प्रतिष्ठा का खयाल करना ही मूर्खता है । इस वस्तु से मेरी प्रतिष्ठा है... इस व्यक्ति से मेरी प्रतिष्ठा है' - यह विचार ही अज्ञानमूलक है। केवल भ्रमणा है । केवल मानसिक विकृति है।
‘मेरे पैसे चले जायेंगे तो मेरी इज्जत चली जायेगी... मेरा बंगला चला जायेगा तो मेरी इज्जत नष्ट हो जायेगी... मेरी पत्नी मुझे छोड़कर चली जायेगी तो मेरी प्रतिष्ठा चली जायेगी... मेरा लड़का या लड़की चली जायेगी... तो मेरी प्रतिष्ठा को धब्बा लगेगा... मुझे सजा होगी तो...' ऐसी-ऐसी कल्पनाएँ करने वाले दुनिया के लोग कितनी घोर अशांति भोगते हैं ? दुनिया की निन्दा से... कि जो दुनिया भी वैसी ही है... और दुनिया में ऐसा सब कुछ होना स्वाभाविक है, डरते हैं! घबराते हैं!
दुनिया को बोलना हो तो बोलने दो! सुनना ही नहीं ! क्यों सुनना ? क्या लेना है दुनिया से? पुण्यकर्म का उदय होगा तो दुनिया मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती! पापकर्म का उदय होगा तो दुनिया मुझे सुखी नहीं कर सकेगी!
'इज्जत से जीना चाहिए' इस सूत्र को मिटा दो! 'हिम्मत से जीना चाहिए' इस सूत्र को याद रखो ! ' श्रद्धा से जीना चाहिए', 'निर्भयता से जीना चाहिए', 'निःस्पृहा से जीना चाहिए', इन सूत्रों को घूँट - घूँट कर जीना चाहिए ! जीवन पीने का आनंद तभी मिलेगा ।
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