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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी से तीव्र व्यथा अनुभव करता हूँ। पर आशाओं से मुझे शीघ्र मुक्ति चाहिए | यह मुक्ति मिल जाए तो बस, मुझे यही मोक्ष मिल गया! ___ मन एक भी परद्रव्य की आशा नहीं करे, परद्रव्य के संयोग-वियोग में हर्षशोक नहीं करे... तभी आत्मध्यान में - परमात्मध्यान में स्थिरता... लीनता... तल्लीनता आ सकती है... तभी आत्मानन्द की अपार अनुभूति हो सकती है। __ जीवन की यह वास्तविकता है कि परद्रव्यों के संयोग-वियोग होते रहते हैं! संयोग में हर्ष और वियोग में शोक करना वास्तविकता नहीं है! वहाँ वास्तविकता है केवल ज्ञाता बनना! केवल दृष्टा बनना! वास्तविकता के अनुरूप जीवन जीने पर, दुनिया की दृष्टि में अच्छा लगूं या बुरा लगूं, मुझे कोई चिन्ता न हो, कोई भय न हो! ऐसा मनोबल, ऐसा आत्मबल कब प्राप्त होगा? कदम-कदम पर दुनिया का विचार करना स्वयं की कमजोरी नहीं है तो और क्या है! दुनिया अवास्तविक को वास्तविक और वास्तविक को अवास्तविक मानती रही है और मानती रहेगी। ऐसी दुनिया के साथ मेरा संबंध कैसे रह सकता है? दुनिया से विमुख हुए बिना वास्तविकता के मार्ग पर निश्चिंतता से नहीं चला जा सकता। परद्रव्यों की आशाओं से मुक्ति पाये बिना अशांति, संताप और अंतर्वेदना से मुक्ति नहीं मिल सकती। कब ऐसे दिन आयेंगे जब सभी परद्रव्यों से निरपेक्ष बन, स्वात्मद्रव्य में अभिरमण करता रहूँगा! For Private And Personal Use Only
SR No.009641
Book TitleYahi Hai Jindgi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages299
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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