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यही है जिंदगी
प्रिय-संयोग की अभिलाषा... वासना कितनी गहरी है...! अप्रिय-वियोग की कामना कितनी प्रबल है...? वर्षों तक प्रयत्न करने पर भी इन वासनाओं से मुक्ति नहीं मिल रही है! हालाँकि मेरा प्रयत्न इतना प्रबल नहीं है, जितनी प्रबल ये वासनाएँ हैं! क्यों प्रयत्न प्रबल नहीं हो पाता है? क्यों इतना आत्मवीर्य उल्लसित नहीं होता है? सोचता हूँ... बहुत बार सोचता हूँ... तो अपनी निःसत्त्वता के साथ-साथ कर्मों की प्रबलता का भी विचार आता है।
जीवन अस्खलित गति से व्यतीत हो रहा है, जीवन-शक्ति क्षीण होती जा रही है... संध्या हो जायेगी... अंधेरा छा जायेगा... भव वन में आत्मा भटक जायेगी... ये सारे विचार आत्मा को झकझोर देते हैं। उद्वेग-विषाद से मन भर जाता है। परन्तु अपनी इस विवशता पर तुरंत ही तिरस्कार आ जाता है। प्रियाप्रिय की कल्पनाओं को नष्ट कर देने की प्रबल भावना जाग्रत होती है...। __ परन्तु यह भावना भी क्षणिक बन कर बिखर जाती है! कैसा है मन? कैसी है भावनाएँ? परन्तु फिर भी निराशा के आंचल में मुंह छिपाकर जीवन नहीं जीना है। जिनवचनों के सहारे सतत पुरुषार्थ करते हुए मरना है! प्रियाप्रिय की कल्पनाएँ रहे या न रहे...
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