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पत्र :46
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद! तेरा प्रश्न है: 'मैं नहीं चाहता फिर भी क्रोध आ जाता है, मैं नहीं चाहता फिर भी अभिमान आ जाता है। माया-कपट पसंद नहीं करता हूँ फिर भी हो जाता है...
और लोभ भी कुछ बढ़ता जा रहा है, ऐसा लगता है। ऐसा क्यों होता है और किस कर्म का उदय इस प्रकार मुझे सताता है?'
चेतन, मोहनीय कर्म का उदय ही इस प्रकार तुझे सता रहा है। तुझे ही अकेले को नहीं, सभी संसारवर्ती जीवों को सताता रहता है! ___मोहनीय कर्म के दो प्रकार हैं: 'दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय यानी मिथ्यात्व और चारित्र मोहनीय यानी कषाय |
चारित्र मोहनीय कर्म दो प्रकार का होता है: 'कषाय और और नो-कषाय | पहले मैं तुझे 'कषाय' शब्द की परिभाषा बताता हूँ। दो शब्द 'कष' और 'आय' के संयोजन से 'कषाय' शब्द बना है। 'कष' का अर्थ है संसार, और 'आय' का अर्थ है लाभ। जिस से संसार का लाभ होता है, यानी संसार में भटकना पड़ता है, वे हैं कषाय!
वे कषाय चार प्रकार के हैं: 'क्रोध, मान, माया और लोभ । पहले मैं इन चारों की संक्षिप्त परिभाषा लिखता हूँ।
क्षमा नहीं रख पाना क्रोध है। सत्ता, धन वगैरह का अहंकार मान है। दूसरों को ठगना माया है और असंतोष... आसक्ति लोभ है।
ये क्रोध, मान, माया और लोभ-चार कषाय, जीवों को संसार-परिभ्रमण
करवाते हैं, विशेष रूप से दुर्गतियों में भटकाते हैं। कषायों के कारण ही जीव दुःख, त्रास, वेदनाएँ पाता है। चेतन, चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से जीवात्मा क्रोधी बनता है, अभिमानी बनता है, मायावी और लोभी बनता है।
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