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पत्र : पद
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद!
तेरा प्रश्न है: 'कुछ लोग ऐसे हैं जो सत्य तत्त्व समझते ही नहीं। उनको समझाने का प्रयत्न करने पर भी समझते नहीं - ऐसा क्यों होता है? असत्य का दुराग्रह क्यों? असत्य को सत्य और सत्य को असत्य मानने की मनोवृत्ति क्यों?'
चेतन, तेरे प्रश्न का प्रत्युत्तर देने के पूर्व, कुछ महत्वपूर्ण बातें लिखता हूँ, तेरे प्रश्न के उत्तर की पूर्वभूमिका है यह। - तू इतना जानता ही है कि जैन दर्शन आत्मा को अनादि मानता है। यानी आत्मा
को कोई जन्म नहीं देता है, कोई उत्पन्न नहीं करता है। - अनादि आत्मा के साथ कर्मों का संबंध भी अनादि है - यह बात भी मैंने तुझे
लिखी है पहले। यानी कर्मयुक्त आत्मा अनादि है। - आत्मा के साथ 'कर्म' अनादि हैं वैसे कर्मबंध के हेतु मिथ्यात्व, अविरति,
कषाय वगैरह भी अनादि काल से साथ ही लगे हुए हैं। - इस प्रकार, आत्मा अनादि है, आत्मा के साथ कर्म-संबंध अनादि है और ___ कर्म बंध के हेतु मिथ्यात्व वगैरह अनादि हैं।
चेतन, प्रत्येक जीवात्मा की चेतना प्रारंभ में अविकसित होती है। अविकसित अवस्था में जीवों का अवस्थान सर्वसाधारण होता है। एक शरीर में अनंत जीव साथ रहते हैं! पूर्ण ज्ञानी की दृष्टि में वे 'जीव' होते हैं, उनको चेतना-युक्त जीवत्व दिखता है... परंतु जो ज्ञानी नहीं हैं, उनकी दृष्टि में वे जीव जड़सदृश होते हैं। - एक शरीर में अनंत जीव-वैसे शरीर भी अनंत! वहाँ जीवों की चेतना
अव्यक्त होती है... कर्म भी अव्यक्त होते हैं और मिथ्यात्व भी अव्यक्त होता है। अव्यक्त मिथ्यात्व, जीव में प्रगट रूप से कोई गुण-दोष को पैदा नहीं कर सकता है।
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