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में नहीं आता, कोई डॉक्टर की समझ में भी नहीं आता है।' ____ मैंने उसको 'वीर्यांतराय' कर्म का प्रभाव समझाया । जीव यह कर्म क्या करने से बाँधता है, यह बात समझाई और इस कर्म का प्रभाव कम करने के लिए मार्गदर्शन दिया। उसने उसी प्रकार धर्म पुरुषार्थ किया... और वह स्वस्थ बना। धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा दृढ़ हुई। वह आज भी आनंद से धर्ममय जीवन जी रहा
एक संभ्रांत परिवार के पति-पत्नी वंदन करने आए | महिला ने विनय से पूछा : 'गुरुदेव, मेरा शरीर अच्छा है, घरवाले अच्छे हैं... फिर भी तपश्चर्या करने की मुझे इच्छा नहीं होती है! घर में कोई तपश्चर्या करता है तो मैं करने देती हूँ... परंतु मैं नहीं करती हूँ... ऐसा क्यों होता है? तप करने का उल्लास ही नहीं जगता है! वैसे, रोजाना मंदिर जाने को भी इच्छा नहीं होती है...।' ___ मैंने कहा : 'तुम्हारा ‘वीर्यांतराय कर्म' तुम्हें तप नहीं करने देता है। इतना ही नहीं, दान देने में उत्साह नहीं आता होगा, खाने-पीने में और सुखोपभोग में भी तुम्हें आनंद नहीं होता होगा । 'वीर्यांतराय कर्म' ने तुम्हारे उत्साह और उमंग पर तुषारापात कर दिया है।'
महिला ने पूछा : 'तो फिर मैं क्या करूँ?' मैंने कहा : 'वीर्यांतराय कर्म को तोड़ने का धर्मपुरुषार्थ करें।'
उसको धर्मपुरुषार्थ करने का मार्गदर्शन दिया और वह दंपति संतुष्ट बन कर गया।
चेतन, ये सारे उदाहरण गृहस्थ के बताए, अब एक उदाहरण एक मुनिराज का बताता हूँ| सुखी परिवार का एक पढ़ा-लिखा लड़का, वैराग्य से दीक्षा लेता है। मोक्षमार्ग की आराधना करने की उमंगें हैं उसके हृदय में। एक वर्ष बीता होगा, ज्ञान-ध्यान में उस को कोई उत्साह नहीं रहा, तप और त्याग में कोई उल्लास नहीं रहा। असंख्य विचारों से और विकारों से उसका मन भर गया।
एक दिन अचानक हमारा मिलन हो गया! वह मुझे जानता था, मैं उसको पहचानता था। उसने अपनी सारी आंतर-बाह्य स्थिति बताई। पूछाः ‘ऐसा क्यों होता है?'
मैंने कहाः ‘वीर्यांतराय कर्म के उदय से! जिस प्रकार साधु को लाभांतराय
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