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रानियाँ थी। रानी लक्ष्मीवती, अपनी प्रिय जिनमूर्ति के वियोग से तड़पती रही थी... तड़पाने वाली थी रानी कनकोदरी! बाद में एक साध्वी के सदुपदेश से, कनकोदरी ने वह चुराई हुई मूर्ति वापस लाकर लक्ष्मीवती के मंदिर में स्थापित कर दी थी।
ईर्ष्या के दूषित भाव से, उसने जो कर्म बाँधा, अंजना के भव में, उस कर्म ने उसके पति के मन में द्वेष का भाव पैदा कर दिया । और मूर्ति चुरा कर, रानी को परमात्मविरह का जो दु:ख दिया, उस पाप क्रिया से जो कर्म बाँधा था, उस कर्म ने उसको पति-विरह का २२ वर्ष तक दुःख दिया! __ हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। हर भाव का प्रतिभाव होता है। यदि तू शुभ और सुंदर भाव की, प्रतिभाव की अपेक्षा रखता है तो तू दूसरों के प्रति शुभ-सुंदर भावों को बहने दे। यदि तू सुखद प्रतिक्रिया की अपेक्षा रखता है तो दूसरों के साथ सुखद क्रिया-कलापों से व्यवहार कर।
- किसी जीव के प्रति दुर्भावना न हो, - किसी जीव के साथ दुर्व्यवहार न हो,
जीवन में ये दो बातें सदैव याद रखना । तू अशुभ-पापकर्मों के बंधन से बचता रहेगा। इस अपेक्षा से ‘जीव मैत्री' का तत्त्व कितना महत्वपूर्ण है - तू समझ सकेगा। - अशुभ पाप भावना से और लक्ष्य से मनुष्य पाप कार्य करता है, उससे वह
प्रगाढ़ कर्म बंधन करता है, - अशुभ भावना के बिना, संयोग से पाप कर्म करता है, उससे वह सामान्य
कर्म बंधन करता है। इसलिए चेतन, मन को पाप विचारो से बचाते रहना है। दूसरे जीवों के प्रति कभी भी पाप विचार नहीं करने चाहिए। कभी तेरे दुःख में, तेरी अशांति में दूसरे लोग निमित्त बन सकते हैं, बनते हैं, परंतु उस समय तुझे सोचना है कि 'मेरे ही पाप कर्म, इस घटना में मूल कारण हैं, ये लोग तो मात्र निमित्त हैं। इन के प्रति मुझे नाराज़ नहीं होना है, रोष नहीं करना है। पूर्व जन्मों में मैंने दूसरे जीवों को दुःख दिया होगा, अशांति-संताप दिया होगा, इसीलिए आज मैं दु:खी बना हूँ, अशांत बना
हूँ | मेरी भूलों की सज़ा मुझे समताभाव से भोगनी ही चाहिए।' - चेतन, किसी व्यक्ति को दान देते हुए रोकना नहीं,
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