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रंग-राग और भोगविलास! स्वयं के भोगोपभोग के अलावा क्या करता है वह रुपयों का उपयोग? परिणाम पापकर्मों का उपार्जन!
चेतन, यह दानांतराय कर्म का ‘लाभांतराय कर्म' के साथ अच्छा संबंध है! 'लाभांतराय कर्म' दानप्राप्ति में विघ्न डालता है।
सामने दानवीर व्यक्ति हो, देने योग्य वस्तु हो, माँगनेवाला मनुष्य यांचाकुशल हो यानी माँगने की कला हो उसके पास, फिर भी उसको दान नहीं मिलेगा... यदि उसका 'लाभांतराय' कर्म उदय में होगा तो!
सामने जो दानवीर व्यक्ति है, उसको 'दानांतराय कर्म' उदय में नहीं है, वह दान देता रहता है सभी लोगों को, जो उनसे माँगने जाते हैं। परंतु मान ले, तू ही उसके पास दान लेने गया । वह दान नहीं देता है, मना कर देता है। तू अच्छे ढंग से माँगता है, चापलूसी करता है, फिर भी वह नहीं देता है, तो समझना कि तेरा 'लाभांतराय कर्म' उदय में है। यह ज्ञान तेरे पास होगा तो तू दानवीर पुरुष के प्रति द्वेष नहीं करेगा! देखा उस दानवीर को, अपने आप को बड़ा दानवीर कहलाता है... एक पैसा नहीं दिया मुझे... कीर्ति का भूखा है... नाम का भूखा है...।' इस प्रकार उस व्यक्ति के प्रति आक्रोश नहीं करेगा।
तू सोचेगा : ‘वह दानवीर ही है, सब को दान देता है, मुझे नहीं देता है...। क्यों? यदि उसका दानांतराय कर्म उदय में होता तो वह किसी को दान नहीं दे सकता था! उसका मेरे प्रति कोई द्वेष नहीं है, शत्रुता नहीं है... दूसरा कोई कारण नहीं है... मेरा 'लाभांतराय कर्म’ मेरा शत्रु बना हुआ है। ___ 'वह दानवीर है फिर भी मुझे... क्यों नहीं देता है?' यह प्रश्न मन में उठता है न? उसका समाधान हो गया न? तेरे लाभांतराय कर्म का प्रभाव दूसरे दानवीर व्यक्ति पर गिरता है! तेरे व्यक्तिगत मामले में उसका 'दानांतराय कर्म' उदय में आ जाता है! तुझे वह दान देना नहीं चाहेगा!
एक भाई ने मुझे कहा : 'जिस कृपण से, लोभी से कोई रुपया नहीं ले सकता है, मैं उसके पास गया और मंदिर के लिए हजार रुपये ले आया!'
ऐसा कैसे बना? उस भाई की 'लाभ-लब्धि' इतनी प्रबल थी कि उसके सामने उस कृपण-लोभी का 'दानांतराय कर्म' टिक नहीं सका! उसने मार्ग दे दिया दान को। रुकावट नहीं कर सका । 'लाभ' की लब्धि प्रबल होती है, तीव्र होती है, तो उसके सामने दानांतराय कर्म की चलती नहीं है।
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