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और अविद्या । ये कर्म के ही दो नाम हैं। नाम भिन्न होने पर तत्त्व का भेद नहीं होता है। पिता कहें या जनक कहें, अथवा 'फादर' कहें-कोई फर्क नहीं पड़ता है।
चेतन, अन्य धर्मों में भिन्न-भिन्न नाम से 'कर्म' तत्त्व को स्वीकार किया गया है। संक्षेप मे यह बात तुझे बताई है। आज इस पत्र में तुझे एक महत्वपूर्ण बात लिखता हूँ| वह बात है पुरुषार्थ की। 'कर्म' की ये सारी बातें पढ़ते-पढ़ते तू 'पुरुषार्थ' को भूल न जाय, यह महत्वपूर्ण बात है। ‘कर्मसिद्धांत' को समझना है कर्म के बंधन तोड़ने के लिए, नहीं कि निष्क्रिय और निराश बनने के लिए।
हम एक भयंकर कर्म-जाल में फंसे हुए हैं, यह बात जानना है। हम यानी मैं, तू और वह नहीं, अपितु समग्र संसार के अनंत-अनंत जीव । हाँ, बिना कर्मजाल का मुक्त जीवन यदि नहीं होता तो जाल को जाल कहा भी नहीं जाता। मुक्त जीवन है, मुक्त जीवन जीने वाली अनंत, अनंत आत्माएँ भी हैं। उन्होंने कर्मजाल से मुक्ति पाई, जाल को तोड़ कर वे निकल गए।
चेतन, कभी ललचाई निगाहों से देखा है मुक्त जीवन? कभी कल्पना के पंखों से उड़ान भरी है मुक्तात्माओं की दुनिया में? कभी मन अकुला उठा है इस गहन और विकट कर्मों की जाल में? क्या इतना भी समझ पाया है कि 'मैं अनंत कर्मों की जाल में फँसा हुआ हूँ।' सर्वप्रथम तो यह समझ स्पष्ट हो जानी चाहिए। पर हाँ, इस समझ के आने पर, यदि मनुष्य निराश बन जाय, मायूस बन जाय कि 'हाय, कितनी मज़बूत है यह जाल? ____ मैं कैसे तोड़ सकता हूँ इस जाल को?' इस तरह मनुष्य कर्मजाल में जीना ही पसंद कर ले तो फिर कर्मजाल को तोड़ने का संकल्प नहीं कर सकता, कर्मजाल को तोड़ने का उपाय भी नहीं सोच सकता! वह सोचेगा कर्मजाल में कैसे जमकर रहना! इसी की कल्पनाएँ और इसी की योजनाएँ बनाता रहेगा! 'कर्मजाल को कहाँ से काटना, किस शस्त्र से काटना, कैसे मुक्त बनना... क्या, प्रयत्न-पुरुषार्थ करना...? वगैरह विचार वह नहीं कर पाएगा।
कर्मजाल को तोड़ने के लिए, उस जाल को पहचानना ज़रूरी है। वह जाल किसकी बनी हुई है? किस तरह गुंथी हुई है? कैसे वह गहन बनती चली जाती है? कहाँ से उसे तोड़ा जा सकता है?' यह सब जानना अति आवश्यक है। स्वयं को यदि जानकारी न हो तो जाल में रहे अन्य समझदार और जाल के ज्ञाता लोगों से मार्गदर्शन लेकर पुरुषार्थशील बनना चाहिए। जिस व्यक्ति को
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