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पत्र : १०
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से कुशलता है।
तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। जैसे-जैसे तू कर्मबंध के हेतु जानता जाएगा वैसे-वैसे तेरे हृदय में घोर चिंता पैदा होती जाएगी। 'मैंने कैसे-कैसे पाप कर्म बाँधे हैं? कैसे-कैसे पाप कर्म बाँध रहा हूँ? मेरा क्या होगा? मरकर क्या मैं दुर्गति में जाऊँगा? कौन सी दुर्गति में जाऊँगा? कितने भयानक कष्ट मुझे दुर्गति में सहने पड़ेंगे?' __चेतन, आज तुझे आयुष्य कर्म' के बंधहेतु लिखता हूँ। आयुष्य कर्म चारगति में से किसी एक गति का बाँधता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा उस गति में चला जाता है। संसार की चार गति हैं : नरकगति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देवगति।
क्या-क्या करने से मनुष्य नरकगति का आयुष्यकर्म बाँध लेता है, सर्वप्रथम वह बताता हूँ।
'बंधइ निरयाउ महारंभ-परिग्गह-रओ रुद्घो।' - जो मनुष्य बड़े आरंभ-समारंभ में आसक्त होता है, - जो मनुष्य बड़े परिग्रह में आसक्त होता है, - जो तीव्र कषायी, जीवघातक, रौद्रध्यानी होता है, वह नरकगति का आयुष्यकर्म बाँधता है। - चेतन, जिस व्यवसाय में, जिस कार्य में असंख्य जीवों की (एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक) हिंसा होती है, उसको आरंभ-समारंभ कहते हैं। जो मनुष्य ऐसे आरंभ-समारंभों में आसक्त रहते हैं, जिन-जिन को आरंभ-समारंभ करने में कोई दुःख नहीं होता है, 'ये काम करने जैसे नहीं हैं,' ऐसा विचार भी नहीं आता है, ऐसे मनुष्य नरकगति का आयुष्य बाँध लेते हैं।
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