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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से कुशलता है। तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
जानते-अनजानते जीवात्मा कैसे-कैसे कर्म बाँधता है, तू जैसे-जैसे समझता जाएगा, तेरी आत्मचिंता बढ़नेवाली है। वैसे ही, तेरी आत्मा जागृत-सावधान बनेगी। पाप-कर्मों का बंध नहीं हो, कम हो, इसलिए जागृत रहना ही है।
चेतन, 'मोहनीय कर्म' जिन कारणों से बँधता है, आज उन कारणों को लिखता हूँ। तू जानता है कि मोहनीय कर्म के मुख्य दो प्रकार हैं - १. दर्शन मोहनीय, और २. चारित्र मोहनीय । सर्व प्रथम मैं दर्शन-मोहनीय कर्म के बंध हेतुओं को लिखता हूँ।
दर्शनमोहनीय कर्म के बंध हेतु मुख्य रूप से आठ हैं - १. उन्मार्ग का उपदेश देना, २. शुद्ध मोक्षमार्ग का नाश करना, ३. देवद्रव्य का नाश करना, भक्षण करना, ४. तीर्थंकर के प्रति शत्रुता, ५. साधु के प्रति शत्रुता, ६. जिन-प्रतिमा के प्रति शत्रुता, ७. जिनमंदिरों के प्रति शत्रुता, ८. चतुर्विध संघ के प्रति शत्रुता,
१. पहला कारण है उन्मार्ग का उपदेश देना। जैसे कि - 'व्रत-नियमों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है, पूजा-पाठ मत करो, साधु बनने की जरुरत नहीं है, इंद्रियदमन मत करो, तप-त्याग मत करो... बस, आत्मा का ध्यान करते रहो... तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी। यह उन्मार्ग का उपदेश है। ऐसा उपदेश देने से दर्शन-मोहनीय कर्म बँधता है।
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