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‘जीवहिंसा' है। एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक जीवों की निर्मम हिंसा करना, अशातावेदनीय बँधवाता है।
इसलिए जैन धर्म में सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव की दया करने की आज्ञा की गई है। एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय - जीवों के प्रति दयाभाव से व्यवहार करने का विधान है। पृथ्वी के, पानी के, अग्नि के, वायु के और वनस्पति के जीवों के प्रति दया कर के, उन जीवों की हो सके उतनी हिंसा नहीं करने को कहा गया है।
चेतन, शातावेदनीय और अशाता - वेदनीय कर्मों के उदय से जो विपाक आते हैं, वे विपाक तू जानता है। अब ये कर्म बँधने के हेतु भी बताए गए। 'अशातावेदनीय' कर्म नहीं बँधे, इसलिए प्रतिपल जागृत रहना।
- भद्रगुप्तसूरि
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