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४. द्वेष करना (गुरु के प्रति, विद्यालय के प्रति...) ५. अध्ययन में रुकावटें डालना (अंतराय करना) ६. अपमान करना, ७. निंदा करना, ८. अवर्णवाद करना।
१. चेतन, पहली बात है शत्रुता की। छोटे-बड़े कुछ मनुष्यों को न ज्ञान प्रिय होता है, न ज्ञानी प्रिय होते हैं। ऐसे लोगों को अनिच्छा से पढ़ना पड़ता है या तत्त्व श्रवण करना पड़ता है, तब उनके मन में शत्रुता का भाव उभरता है। फिर वह ज्ञान के साधनों के साथ और ज्ञानी पुरुषों के साथ अयोग्य व्यवहार करता है। शत्रुता के भाव से प्रेरित होकर अनुचित आचरण करता है।
२. ज्ञान की रुचि हो, गुरु के पास अध्ययन भी किया हो, गुरु ने अच्छा अध्ययन कराया हो, बाद में शिष्य, गुरु से भी आगे बढ़ गया हो... उसकी कीर्ति फैली हो, उस समय गुरु तो जहाँ थे वहाँ ही अप्रसिद्ध रहे हो। शिष्य के ज्ञान से प्रभावित होकर कोई पूछे आप को इतना अच्छा ज्ञान किससे मिला? आपके गुरु कौन हैं?' वहाँ यदि शिष्य अपने सच्चे गुरु का नाम नहीं बताता है... दूसरे कोई प्रसिद्ध आचार्य का नाम बताता है तो वह 'गुरु-निह्नव' कहलाता है, वह ज्ञानावरण कर्म बाँधता है।
३. जिस गुरु के पास पढ़ता है, वे गुरु स्वभाव से उग्र हो, कभी शिष्य को कटु शब्दों में उपालंभ दिया, शिष्य को गुरु के ऊपर गुस्सा आ गया... और गुरु के ऊपर प्रहार कर दे । अथवा गुरु-पत्नी या गुरु पुत्री के साथ शिष्य का प्रेम हो जाय, और गुरु उस प्रेम में बाधक लगे...। तो शिष्य गुरु
का घात कर दे। ऐसी कुछ प्राचीन कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं। ऐसा करने से ज्ञानावरण - दर्शनावरण कर्म बँधते हैं।
४. गुरुकुल में रहने पर, गुरु के प्रति द्वेष-प्रद्वेष होने की संभावना रहती है। शिष्य की इच्छा से विपरीत यदि गुरु आज्ञा करते हैं तो शिष्य को द्वेष हो सकता है। शिष्य को गुप्त रूप में या सबके सामने में शिक्षा करते हैं गुरु, तो भी शिष्य को गुरु के प्रति द्वेष होता है। शिष्य को लगे कि गुरु पक्षपात करते हैं, तो भी शिष्य को गुरु के प्रति द्वेष होता है। किसी भी कारण, यदि शिष्य को गुरु के प्रति
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