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होता है। फिर भी कोई निकाचित कर्म का उदय आ भी सकता है... तो समभाव से, बिना राग-द्वेष किए, वे आपत्ति का स्वीकार कर लेते हैं। यश-अपयश को, कीर्ति-अपकीर्ति को वे मन पर लेते ही नहीं हैं। वे कर्मोदय को एक तमाशा ही समझते हैं। विशेष कुछ भी नहीं।
अपयश का भय समाज में कितना व्यापक है! - एक निर्दोष व्यक्ति पर चरित्रभ्रष्टता का कलंक आया, उसने अपयश से बचने के लिए आत्महत्या कर ली! इस प्रकार प्राणत्याग के अनेक दु:खद
प्रसंग बनते हैं। - एक प्रामाणिक शिक्षक के ऊपर चोरी का आरोप लगा। शिक्षक अपयश से
घबराया, उसने आत्महत्या कर ली। - एक बड़े व्यापारी को व्यापार में एक करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ।
बेइज्जती से बचने के लिए उसने जहर पी लिया। - एक हॉस्टेल में एक लड़का षड़यंत्र का भोग बना, निर्दोष था... अपयश के
भय से आत्महत्या कर ली। - अपयश से बचने के लिए कुछ लोग परदेश चले जाते हैं, कई लोग भूगर्भ
में चले जाते हैं। छुप जाते है।
चेतन, दुनिया में यश पाने के लिए और अपयश से बचने के लिए मनुष्य क्या-क्या नहीं करता है? परंतु न यश स्थाई रहता है, न अपयश स्थिर रहता है! दोनों बातें परिवर्तनशील हैं। बड़ा यशस्वी मनुष्य अपयश के गहरे कुएँ में गिर सकता है और अपयश के खड्डे में गिरा हुआ मनुष्य-कीर्ति के शिखर पर पहुँच सकता है।
समझदार मनुष्य इस कर्मसिद्धांत को अच्छी तरह समझ लेता है तो पुण्य कर्म के उदय में वह उन्मत्त नहीं बनेगा और पाप कर्म के उदय में वह निराशहताश नहीं बनेगा।
- महासती सीता का अपयश क्या नहीं फैला था? - श्रेष्ठी सुदर्शन पर क्या कलंक नहीं लगा था? - महासती अंजना के ऊपर आरोप नहीं लगा था क्या? परंतु वे सत्त्वशील थे, ज्ञानी थे... उन्होंने आत्महत्या नहीं की थी। आत्मसाक्षी
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