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कोई मानता नहीं है।' 'नहीं, मेरा कोई कुछ भी नहीं मानेगा, चलेगा! मेरी आत्मा जिनवचनों को मानती रहे, पालती रहे... बस, मुझे ओर कुछ नहीं चाहिए। मैं अकेला आया हूँ, अकेला ही जानेवाला हूँ। मैं मानता हूँ कि मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ | यह वास्तविकता है, और मैं वास्तविकता का स्वीकार करता हूँ। मुझे आदेय-नामकर्म से मतलब नहीं है, मुझे तो बस, मोहनीय कर्म का क्षयक्षयोपशम करना है। मेरा यही लक्ष्य है।' मोहनीय कर्म का क्षय करने की आराधना में ही मन को लीन रखना है। इस प्रकार अपना ध्येय निर्धारित कर जो जीवन जीता है, उसका 'अनादेय-नामकर्म' कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता है। कर्मोदय का समताभाव से वेदन करते चलो! इसलिए जिनवचनों का चिंतन-मनन करते रहो - शेष कुशल,
- भद्रगुप्तसूरि
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