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- शिष्य चाहते हैं कि कभी हमारी बात भी गुरु को माननी चाहिए, नहीं मानते
हैं, गुरु, तो शिष्य के मन खिन्न हो जाते हैं। यदि ये सभी लोग इतना समझ लें कि 'हमारी बात दूसरे तभी मानेंगे, यदि हमारा आदेय-नामकर्म उदय में होगा। नहीं मानते हैं, उसका कारण 'अनादेयनामकर्म' है। तो मन का समाधान हो सकता है।
'दूसरों को तर्क से समझाते हैं, बुद्धिपूर्वक समझाते हैं, फिर भी नहीं समझते हैं, बात नहीं मानते हैं तो गुस्सा आ जाता है। बात मनवाने के लिए कभी बलप्रयोग भी कर लेते हैं। मन अशांत बन जाता है। सामनेवाले का मन भी उद्विग्न हो जाता है।'
ये शब्द हैं एक विद्यालय के गृहपति के । मैंने उनको जब ‘आदेय-अनादेयनामकर्म' का तत्त्वज्ञान समझाया, उनके मन का कुछ समाधान हुआ। हालाँकि उन्होंने अनुशासन की, सामूहिक अनुशासन की बात बताई। मैंने कहा : अनुशास्ता आदेय नामकर्म के उदयवाला चाहिए। जिस का अनादेय-नामकर्म का उदय होता है, उसको अनुशास्ता नहीं बनना चाहिए | अथवा अनुशासन का आग्रह नहीं रखना चाहिए।'
सभी प्रकार के भौतिक सुख होने पर भी यदि परिवार आज्ञांकित नहीं होता है (जिस घर के मुखिया को अनादेय-नामकर्म का उदय होता है उसका परिवार आज्ञांकित नहीं हो सकता है) तो उस घर के बड़े लोग-प्रायः अशांत होते हैं, बेचैन होते हैं। इसमें भी जवान लड़के-लड़कियाँ आज्ञांकित नहीं होते हैं, मनस्वी होते हैं, उन माता-पिता को कितनी मानसिक पीड़ा होती है, मैं जानता हूँ। मेरे पास ऐसे माता-पिता आते हैं और कहते हैं : 'कृपा करके मेरे लड़के को आप समझाइए.. हमारा तो मानता ही नहीं है। कुछ कहते हैं तो हमारे पर गुस्सा करता है।'
एक महानुभाव ने कहा : ‘बाजार में मेरी बात बड़े-बड़े व्यापारी भी
सुनते हैं, मानते हैं, मुझे मान देते हैं, परंतु घर में न कोई मेरी बात सुनता है, न मानता है... न मेरे साथ औचित्य पूर्ण व्यवहार करता है! मेरे मन में इस बात का बड़ा दु:ख है।'
कहीं पर आदेय नामकर्म काम करता है, कहीं पर अनादेय नामकर्म काम करता है! मैंने उनके मन का समाधान करने का प्रयत्न किया । सब जगह, सभी
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