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यह 'त्रस-नाम कर्म' उस शक्ति पर नियमन करता है। शक्ति को मर्यादित करता है। इसलिए जीव लोकाकाश में जहाँ चाहे वहाँ नहीं जा सकता है। मर्यादा में ही गमनागमन कर सकता है। वैसे, अशक्ति, रोग, बंधन आदि कारण गमनागमन में रुकावट पैदा करते हैं।
त्रस नामकर्म का उदय होने पर भी, अशातावेदनीय कर्म का उदय जीव को चलने नहीं देता है। अशातावेदनीय कर्म रोग पैदा करता है, अशक्ति पैदा करता है... जीव की इच्छा होने पर भी वह गमनागमन नहीं कर सकता है। चाहे कोई भी उपद्रव हो... सहायक 'धर्मास्तिकाय' भी उपस्थित हो।
वैसे, जीव निरोगी हो, सशक्त हो, निर्बंधन हो, परंतु इच्छा नहीं हो, तो भी जीव गमनागमन नहीं करेगा। जहाँ एक सामान्य जीवात्मा, उष्णकाल में, धूप में से छाँव में जाता है, शीतकाल में छाँव में से धूप में जाता है, परंतु साधक योगी पुरुष, उष्णकाल में... भयंकर धूप में खड़ा रहता है, आतापना लेता है। __सामान्य मनुष्य किसी डाकू... चोर... या हत्यारे के भय से घबराकर बचने की भावना से दौड़ जाता है। परंतु योगी पुरुष निर्भय होते हैं। चाहे चोर डाकू वगैरह उस पर प्रहार करें, तो भी वे स्थिर खड़े रहते हैं। 'त्रस नाम कर्म का उदय होने पर भी वे वहाँ से अन्यत्र चले नहीं जाते हैं। ____ ध्यानस्थ दशा में खड़े रहे साधक पुरुष, आग लगने पर भी वहाँ से अन्यत्र नहीं जाते। जल भी जायं... परंतु स्थिर ही रहेंगे। यह हुई इच्छा की बात ।
चेतन, तेरा दूसरा प्रश्न हैं - सिद्धशिला पर तो मुक्त आत्माएँ स्थिर रहती है, परंतु संसार में भी
कुछ स्थिर पड़े रहते हैं... जैसे पृथ्वीकाय आदि। ये जीव क्यों स्थिर पड़े रहते हैं? स्वेच्छा से गमना-गमन क्यों नहीं कर सकते?
चेतन, मैंने तुझे प्रारंभ में ही लिखा है कि एकेंद्रिय-जीव स्वेच्छा से गमनागमन नहीं कर सकते। क्योंकि उन जीवों को 'स्थावरनाम कर्म' का उदय होता है। जीवों को स्थिर रखने का काम यह कर्म करता है। __ पृथ्वीकाय के जीव, अपकाय के जीव, तेजकाय के जीव और वनस्पतिकाय के जीव-एकेंद्रिय जीव कहलाते हैं। इन जीवों को मात्र एक ही इंद्रिय-स्पर्शद्रिय होती है, इसलिए वे जीव एकेंद्रिय कहलाते हैं। इन जीवों को 'स्थावर-नामकर्म'
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