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हाँ, कर्म की मूल प्रकृति, अन्य मूल प्रकृति रूप नहीं बदल सकते । परंतु कर्मों की उत्तर (अवांतर) प्रकृतियों का संक्रम हो सकता है। हाँ, आयुष्य कर्म का संक्रम-परिवर्तन नहीं हो सकता है। आयुष्यकर्म के चारों प्रकार का संक्रमण नहीं होता हैं। परंतु अशातावेदनीय कर्म का शातावेदनीय में, शातावेदनीय का अशातावेदनीय में परिवर्तन-संक्रम हो सकता है।
संक्रम में कर्म की प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश-चारों बातों का परिवर्तन होता है। अपवर्तना एवं उद्वर्तना में मात्र स्थिति और रस का ही परिवर्तन होता हैं।
चेतन, जैन दर्शन में आठ प्रकार के करण बताये गए हैं। १. बंधन करण
५. उदीरणा करण २. संक्रम करण
६. उपशमना करण ३. उद्वर्तना करण
७. निधत्ति करण ४. अपवर्तना करण
८. निकाचना करण - जीव ने जो कर्म बाँधा, उस कर्म को उदय में नहीं आने देना, उस को 'उपशमना करण' कहते हैं। विपाकोदय नहीं, प्रदेशोदय भी नहीं। बँधा
हुआ कर्म, वैसा ही निष्क्रिय पड़ा रहता है। - जीव ने जो कर्म बाँधा हो, उस कर्म के ऊपर मात्र अपवर्तना और उद्वर्तनाकरण ही काम कर सकते हैं, उस में संक्रम... उदीरणा वगैरह
दूसरे करण काम नहीं कर सकते हैं। इस करण को 'निधत्ति' कहते हैं। - जीव ने जो कर्म बाँधा हो, जिस पर कोई करण काम नहीं कर सकता है,
उस कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। इसको 'निकाचना' कहते हैं।
चेतन, आठ करणों का संक्षेप में परिचय दिया है। इसका विस्तार 'कर्मप्रकृति' ग्रंथ में एवं 'पॅच संग्रह' नाम के ग्रंथ मे पाया जाता हैं। इन ग्रंथों का अध्ययन करना आवश्यक है।
चेतन, 'योगदर्शन' में कर्माशय का मूल कारण ‘क्लेश' बताया है। यह 'क्लेश' जैन दर्शन का 'भाव-कर्म' है। योगदर्शन में 'क्लेश' की चार अवस्था बताई गई हैं - १. प्रसुप्त २. तनु. ३. विच्छिन्न और ४. उदार।
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