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पर वह कर्म उदय में आता है, यह सर्व साधारण नियम है। परंतु उस कर्म को जल्दी उदय में लाना हो, तो ला सकते हैं! निश्चित काल के पूर्व कर्म को उदय में लाने की क्रिया को 'उदीरणा' कहते हैं, 'विपाक - उदीरणा' भी बोलते हैं।'
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‘विपाक-उदीरणा' करने के लिए कर्म की स्थिति को कम करनी पड़ती है। यह स्थिति कम करने का कार्य 'अपवर्तना-करण' से होता है ।
चेतन, ‘अपवर्तना-करण' संक्षेप में समझाता हूँ ।
समझ ले कि एक मनुष्य ने अशुभ- पाप क्रिया की, हिंसा की, चोरी की वगैरह। उससे अशुभ कर्म बँध गया । परंतु उसके बाद जीव शुभ- पवित्र कार्य करता है तो अशुभ कर्म की स्थिति और रस कम करता है, घटाता है। इस क्रिया को ‘अपवर्तना ́ कहते हैं। यह अपवर्तना करण, कर्मों की स्थिति को व रस को घटाने का काम करता है।
इससे विपरीत, जीव पहले शुभ - पुण्यकार्य करता है। उससे शुभ कर्म बँधता है। कर्मबंध होता है उस में स्थिति बँधती है, रस बँधता है, प्रकृति बँधती है और प्रदेश बँधते हैं। चार बातें बँधती हैं। शुभ प्रवृत्ति के बाद जीव अशुभ प्रवृत्ति करता है, पाप-प्रवृत्ति करता है, तो शुभकर्म के रस को एवं स्थिति को कम करता है।
चेतन, परंतु यदि पाप कर्म बाँधने के बाद, मनुष्य ज्यादा पाप कर्म करता हैं तो पाप-कर्म की स्थिति और रस बढ़ जाता है ! इसको 'उद्वर्तना-करण' कहते हैं। ये दो करण-अपवर्तना और उद्वर्तना महत्त्वपूर्ण हैं!
यदि तूने एक शुभ कर्म बाँधा । शुभ कर्म में स्थिति और रस भी बँध
गया। अब तू उस शुभ कर्म की, शुभ क्रिया की प्रशंसा - अनुमोदना करता है, तेरे मनोभाव ज्यादा शुभ होते हैं... तो शुभ कर्म की स्थिति बढ़ जाती है, रस बढ़ जाता है। जब वह कर्म उदय में आएगा, तीव्र शुभ फल देगा।
पाप-कर्म की अपवर्तना करते रहो,
शुभ कर्म की उद्वर्तना करते रहो!
चेतन, जिस प्रकार विपाक - उदीरणा करने के लिए अपवर्तना करण से कर्मों की स्थिति एवं रस घटना पड़ता है, वैसे 'संक्रमकरण' के द्वारा कर्मों के स्वभाव में परिवर्तन किया जा सकता है। एक कर्म को दूसरे सजातीय कर्म रूप में बदल सकते हैं।
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