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९. दर्शन
११.
चारित्र
१३.
क्रिया
१५. गौतम
१७.
संयम
प्रतिक्रमण
प्रतिलेखना
- भूमिशयन
१४. तप
१६. जिन
१८. अभिनव ज्ञान
१९. श्रुत
२०.
तीर्थ
एक-एक पद के २० अट्ठम, अथवा २० छट्ठ अथवा २० उपवास करने के होते हैं। छ महिने की समय मर्यादा में एक ओली पूर्ण होनी चाहिए । इस २० स्थानक तप की आराधना में निम्न बातों का पालन करना आवश्यक है -
- पौषध
- तपश्चर्या
खमासमणा
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१०. विनय
१२. ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य का पालन
असत्य का त्याग
उस-उस पद की प्रशंसा
जिन पूजा
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कायोत्सर्ग
नवकारवाली (उस-उस पद की )
- देववंदन
उद्यापन
चेतन, गुरुजनों के मार्गदर्शन में यह तपश्चर्या करनी चाहिए। हृदय में परहितपरोपकार की भावना की वृद्धि करनी चाहिए । यह महत्त्व की बात है।
यह तीर्थंकर नामकर्म, तीर्थंकर बनने से पूर्व के तीसरे भव में बँधता है। जैसे भगवान महावीर स्वामी २७ वे भव में तीर्थंकर बने थे, तो उन्होंने २५ वे
भव में (नन्दन नाम के राजकुमार के भव में) तीर्थंकर नामकर्म बाँधा था।
जब तीर्थंकर नामकर्म ('जिननाम' भी कहते हैं) का उदय होता है तब वह आत्मा सर्वज्ञ-वीतराग तो बनती है, विशेष में वह आत्मा त्रिभुवन-पूज्य बनती है। १२ विशिष्ट गुणों का आविर्भाव होता है -
१. ज्ञान-अतिशय (सर्वज्ञता)
२. वचन-अतिशय (उनका उपदेश सभी जीव समझते हैं)
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