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प्रिय चेतन, धर्मलाभ! मेरा पत्र पाकर तू आनंदित होता है - यह स्वाभाविक है | ज्यों-ज्यों तेरे मन का समाधान होता जाएगा त्यों-त्यों आनंद बढ़ता ही जाने वाला है। श्रमण भगवान महावीर और अग्निभूति गौतम का संवाद, बहुत लोगों को अच्छा लगा। अग्निभूति गौतम के मन का समाधान तो हो ही गया था, और वे भगवान के शिष्य बन गए थे, अभी यह संवाद पढ़कर कई लोगों के मन का समाधान हो रहा है! यह मेरे आनंद को बढ़ानेवाली बात है।
_ 'भगवंत, फल की विचित्रता, कर्मों की विचित्रता के बिना संभवित नहीं होती, तो फिर बादलों में विचित्र प्रकार कैसे दिखाई देते हैं? चूंकि वहाँ कर्मवैचित्र्य नहीं है! वैसे जीवात्मा के सुख-दुःखों की विचित्रता भी कर्मवैचित्र्य के बिना मान सकते हैं न?' अग्निभूति गौतम ने विनय से प्रश्न किया।
भगवंत ने कहा : 'हे अग्निभूति, बाह्य पुद्गल-समूहों में यदि तू विचित्रता मानता है तो फिर आंतरिक कर्म-पुद्गलों में विचित्रता क्यों नहीं मानता है? बाह्य पुद्गलसमूहों के बजाय, जीव ने ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में ज्यादा विचित्रता होती है!'
'प्रभो, आपकी बात मान ली, परंतु मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा पर अनुग्रह अथवा उपघात कैसे हो सकता है? जैसे अग्नि मूर्त है और आकाश अमूर्त है, तो अग्नि आकाश को जला नहीं सकती है।' 'महानुभाव, तेरा प्रश्न उचित है। परंतु मैं तुझे पूछता हूँ : ज्ञान मूर्त है या
अमूर्त?'
'अमूर्त-अरूपी है प्रभो!'
'उस ज्ञान पर मदिरा (शराब) का असर होता है न? मदिरा जब कि मूर्त है, रूपी है! उस ज्ञान पर विषप्रयोग होता है न? वैसे, घी-दूध और ब्राह्मी चूर्ण वगैरह से ज्ञान बढ़ता है न? इस प्रकार अमूर्त आत्मा पर मूर्त कर्मों का शुभ-अशुभ असर
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