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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
पुद्गल-परमाणु की एवं स्कंध-वर्गणा की बातें सूक्ष्म चिंतन की बातें हैं। मेरा वह गत पत्र तुझे तीन-चार बार पढ़ना होगा। फिर भी जो बातें तेरी समझ में नहीं आएँगी, वे बातें प्रत्यक्ष जब मिलेगा, तब समझाऊँगा।
तेरा नया प्रश्नः 'मनुष्य की मृत्यु होती है यानी उस का औदारिक शरीर छूट जाता है, तैजस और कार्मण शरीर के साथ आत्मा अपनी निर्धारित गति में जाता है। कैसे जाता है? आकाश में कोई मार्ग है क्या? उस मार्ग पर आत्मा भूली न पड़ जाए, इधर-उधर भटक ना जाएँ, उसके लिए कोई कर्म पथप्रदर्शक होता है क्या? एक गति में से दूसरी गति में जाने में कितना समय लगता है? आत्मा ने जिस गति का कर्म बाँधा हो, उसी गति में जाती है? रास्ते में भटकती रहती तो नहीं है न?' __ चेतन, जीव का आयुष्य पूर्ण होने पर उसकी मृत्यु होती है। चार गति के सभी जीव की मृत्यु होती है। मृत्यु के बाद उस जीव को, जिस गति का आयुष्यकर्म उसने बाँधा होगा, उस गति में उसको जाना ही पड़ता है। रास्ते में वह औदारिक या वैक्रिय शरीर से मुक्त होता है। मात्र तैजस शरीर और कार्मण शरीर होते हैं आत्मा से संलग्न।
एक गति से दूसरी गति में जाने का रास्ता होता है आकाश में । आकाश एक विशालतम प्रदेश है। उस आकाश-प्रदेश में अनेक मार्ग होते हैं। जैसे हवाईजहाज (प्लेन) के मार्ग आकाश में निश्चित होते हैं। एक
जगह से दूसरी जगह जाने का आकाशमार्ग निश्चित होता है, वैसे आत्मा को एक गति में से दूसरी गति में जाने के मार्ग होते हैं, 'आकाशप्रदेश की श्रेणी' कहते हैं मार्ग को। मृत्यु के बाद, आत्मा जब शरीर छोड़कर निकलती है, वह सीधे मार्ग से
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