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मेरा लड़का कभी ताश को हाथ भी नहीं लगाता है । मेरा लड़का कभी शराब को छूता भी नहीं... और अपने पास वह... रहते हैं न? वे रोजाना शराब पीते हैं । ' ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए ।
'मेरे पिताजी बड़े डॉक्टर हैं, मेरा भाई इन्जीनियर है और मेरे पति बड़े वकील हैं... मेरा लड़का पढ़ने के लिए परदेश गया है। हमारा परिवार सुशिक्षित है।' ऐसा अभिमान कभी नहीं करना। ऐसा बोलने से मन में उत्कर्ष की भावना आ जाती है तो ‘नीच गोत्र कर्म' बँध जाता है।
‘मेरे पिताजी बड़े उद्योगपति हैं, पति का व्यापार परदेश के साथ चलता है.... मेरा लड़का सरकार में बड़ा अफसर है... हमारी बहुत बड़ी आय है ।' दूसरों के सामने कभी भी ऐसा स्वोत्कर्ष नहीं गाना । अन्यथा 'नीच गोत्र कर्म' बँधते देरी नहीं लगेगी।
चेतन, आज के युग में स्वप्रशंसा करने की 'फैशन' चल पड़ी है। स्वप्रशंसा के साथ साथ परनिंदा करने की आदत भी व्यापक रूप से दिखाई देती है। अलबत्ता, इसमें मनुष्य की अज्ञानता ही मूल कारण है । परंतु कभी-कभी 'कर्म' के तत्त्वज्ञान को समझनेवाले विद्वान लोग भी स्वप्रशंसा और परनिंदा की जाल में फँसे हुए दिखाई देते हैं । तब आश्चर्य तो नहीं, दुःख होता है। जिन विद्वानों के पास जीवनस्पर्शी ज्ञान नहीं होता है, मात्र शास्त्रज्ञान ही होता है, वैसे लोग स्वप्रशंसा की और परनिंदा की जाल में फँसते हैं। शास्त्रज्ञान भी कभी मनुष्य को अभिमानी बना देता है ।
जिस शास्त्रज्ञान से जीवनपथ आलोकित करना होता है, उस शास्त्रज्ञान के दीपक को हाथ में लेकर मनुष्य गहरी खाई में कूद पड़ता है, जहाँ घोर अंधकार होता है।
उच्च गोत्र कर्म बँधता है पंच परमेष्ठि भगवंतों की प्रशंसा करने से। उत्तम पुरुषों का आदर करने से । गुणवानों की प्रशंसा करने से मनुष्य स्वयं गुणवान बनता है। चेतन, कभी भी परनिंदा नहीं करना, परप्रशंसा करना । यदि सिद्ध भगवंतों के गुणों का ज्ञान हो तो सिद्ध भगवंतों की प्रशंसा करना।
आचार्य, उपाध्याय और साधु पुरुषों के गुणों की प्रशंसा करना । कभी भी निंदा नहीं करना। दोषों की, निंदा करने से कोई सुधरता नहीं है । सुधारना है दूसरों को, तो पहले उनकी प्रशंसा करो, बाद में उसी व्यक्ति को उसके दोष
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