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चेतन, घर में जिस व्यक्ति को इस 'निद्रा-निद्रा' कर्म का उदय होता है, उसके प्रति घर के लोग कुछ नाराज होते हैं। उसकी निद्रा को लेकर उसको कोसते रहते हैं। 'वह जल्दी उठता नहीं है, उसको जागने में बहुत तकलीफ पड़ती है... वह बहुत नींद लेता है...' वगैरह। परंतु ज्यादातर लोग सही कारण जानते नहीं है। सही कारण जानने पर जीवात्मा के प्रति रोष नहीं होगा। कर्म के प्रति रोष होगा और उस कर्म की निर्जरा करने का उपाय खोजेगा।
३. निद्रा का तीसरा प्रकार है प्रचला। प्रचला-कर्म का उदय होने पर जीवात्मा को बैठे-बैठे नींद आ जाती है, चलते-चलते भी निद्रा आ जाती है। चेतन, बैठे-बैठे नींद लेनेवाले तो तूने देखे होंगे। मैं तो रोजाना देखता हूँ। प्रवचन सुनते-सुनते एक-दो महानुभाव निद्रा के उत्संग में ढल ही जाते है। दूसरे लोग जब प्रवचन का रसास्वाद करते हैं तब वे महानुभाव निद्रा का आस्वाद लेते है। बैठे-बैठे निद्राधीन हो जाते हैं। चेतन, खड़े-खड़े निद्रा लेनेवालों को शायद तूने नहीं देखे होंगे। मैंने देखे हैं।
हाँ, खड़े-खड़े नींद लेते हैं लोग | तूने शायद नहीं देखे होंगे ऐसे लोग | मैंने शाम के प्रतिक्रमण में खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करनेवालों को, कुछ वृद्ध पुरुषों को, कुछ बच्चों को नींद लेते हुए देखा है। कभी कोई जमीन पर गिर भी जाता है। 'प्रचला' कर्म के उदय से खड़े-खड़े नींद आ सकती है।
४. चौथा प्रकार है 'प्रचला-प्रचला' निद्रा का। इस कर्म का जिस मनुष्य को उदय होता है, उसको चलते-चलते नींद आ जाती है। वे चलते रहते हैं और नींद लेते रहते हैं। तूने शायद ऐसे लोग नहीं देखे होंगे। मैंने देखे हैं। मैं भी बचपन में चलते-चलते नींद लेता था। नींद आती हो और चलना अनिवार्य होता है तब चलते-चलते नींद आ सकती है। जितनी निद्रा मनुष्य को होनी चाहिए उतनी निद्रा पूर्ण नहीं हुई हो और उस को जगाकर चलाया जायं तो चलते-चलते नींद आ सकती है। ‘प्रचला-प्रचला' कर्म का
उदय इसमें कारणभूत होता है। चेतन, अब कभी ऐसा मनुष्य देखने में आए तो उसका उपहास मत करना, परंतु सोचना कि 'प्रचला-प्रचला' कर्म का उदय इस प्रकार चलते हुए मनुष्य को भी निद्राधीन कर सकता है।
५. निद्रा का पाँचवा प्रकार है 'थिणद्वि' निद्रा का। संस्कृत भाषा में इसका नाम है स्त्यानद्वि । जिस मनुष्य को इस 'थिणद्वि' निद्रा का उदय होता है, वह नींद में ही चिंतित कार्य कर लेता है। दिन में जो कार्य करने का सोचा हो, वह
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