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अष्टावक्र मुनि की कहानी तू जानता है न? प्राचीन काल में एक मुनि हो गए। उनके शरीर के आठ अवयव टेढ़े थे, वक्र थे, इसलिए वे 'अष्टावक्र' कहलाए। बड़े ज्ञानी पुरुष थे। नगर से दूर आश्रम में रहते थे।
एक दिन वे मुनि राजा की सभा में गए | राजा, विद्वानों का आदर करता था, यह बात सुन कर वे गए थे। परंतु राजसभा में जाते ही, वहाँ बैठे हुए राजा समेत सभी विद्वान जोर-जोर से हँसने लगे। जब उनका हँसना बंद हुआ, अष्टावक्र मुनि हँसने लगे। ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। सभी विद्वान एक-दूसरे के सामने आश्चर्य से देखने लगे।
राजा ने अष्टावक्रजी को पूछाः 'महात्मन्, हम लोग सकारण हँसे, आप किस कारण हँसते हो? कृपा कर बताइए।'
अष्टावक्रजी ने कहाः ‘राजन, मैं यह समझकर तेरी राजसभा में आया था कि तेरी राजसभा में विद्वान ज्ञानी पुरुष बैठते है। परंतु मैंने तो यहाँ चमारों को बैठे देखा । तू भी चमार ही है। इसलिए मैं हँसता हूँ।
राजा और सभासदों के मुँह काले स्याह जैसे हो गए। राजा ने जरा रोष में आकर पूछाः 'हे मुनि, आप हमें चमार कैसे कहते हो?'
'राजन, तू इतना भी नहीं समझता है? जो चमार होते है वे जीवों की चमड़ी और हड्डी को ही देखते हैं। तुम लोगों ने मेरा क्या देखा? मेरी चमड़ी देखी, मेरी टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियाँ देखी और हँसने लगे। तुमने मेरा ज्ञान नहीं देखा, मेरी विद्वत्ता नहीं देखी। राजन्, क्या तुम चमार नहीं हो?'
राजा ने और सभासदों ने खड़े होकर मुनि की क्षमा माँगी।
चेतन, इस प्रकार ज्ञानी पुरुषों की कभी मज़ाक नहीं करना, करने से ज्ञानावरण कर्म बंधता है। - सर्वज्ञ-वचनों का मति कल्पना से अर्थ कर, उस अर्थ का उपदेश देने से ये
कर्म बँधते है। इसको ‘उत्सूत्रभाषण' कहते हैं। उत्सूत्रभाषण करने से ज्ञानावरण के साथ-साथ मोहनीय कर्म भी बँधता है, दूसरे पाप-कर्म भी बँधते है। शास्त्रों के अर्थ करने में बड़ी सावधानी रखनी
चाहिए। - पढ़ने में जो अकाल बताया गया है, यानी जिस समय में पढ़ने का निषेध
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