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पत्र :
प्रिय चेतन,
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद! तेरा प्रश्न है: 'मेरे बड़े भाई का लड़का बुद्धिमान है। कभी-कभी घर की समस्या को सुलझा देता है... जिस समस्या को हम लोग नहीं सुलझा पाते है। परंतु इस लड़के को पढ़ना पसंद नहीं है। बड़ी मुश्किल से दसवीं कक्षा पास की है। आगे वह पढ़ना नहीं चाहता है। ऐसा क्यों होता है?' ___ चेतन, इस प्रश्न का समाधान सरल है। उस लड़के का ‘मतिज्ञानावरण' कर्म का क्षयोपशम अच्छा है इसलिए उसकी बुद्धि तेज है। परंतु उसके 'श्रुतज्ञानावरण' कर्म का जितना क्षयोपशम होना चाहिए, उतना नहीं है, इसलिए पढ़ने की इच्छा नहीं होती है।
चेतन, आज मैं 'श्रुतज्ञानावरण' कर्म के विषय में यह पत्र लिखता हूँ। इस कर्म के उदय से जीवात्मा किस-किस प्रकार प्रभावित होता है, किस किस प्रकार से जीव अज्ञानी होता है, यह बताता हूँ। - जब श्रुतज्ञानावरण कर्म अति प्रगाढ़ होता है, तब जीव को अक्षरज्ञान नहीं होता है। लिपि ज्ञान नहीं होता है। हंसलिपि, भूतलिपि, यक्षीलिपि... वगैरह अठारह प्रकार की लिपि का ज्ञान नहीं होता है। इस कर्म के क्षयोपशम के आधार पर एक-दो या पाँच-दस... लिपि का ज्ञान होता है। वैसे अ...आ...इ-ई से ह तक जो व्यंजन (स्वर भी) होते हैं, इन व्यंजनों का ज्ञान नहीं होता है। कम-ज्यादा होता है। __पाँच इंद्रियों और मन के माध्यम से जो ज्ञान होना चाहिए, वह नहीं होता है। इस कर्म के क्षयोपशम से कम-ज्यादा ज्ञान होता है। अक्षरों के माध्यम से जो ज्ञान होता है वह 'अक्षरश्रुत' कहा जाता है। इस कर्म के उदय से 'अक्षरश्रुत' प्राप्त नहीं होता है।
शब्द श्रवण से अथवा रूप दर्शन वगैरह से अर्थ की प्रतीति करवानेवाला
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